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अनेकान्त 64/1 जनवरी-मार्च 2011
प्रस्तुत होती हैं और इस तरह वह क्रियाजड़ता में न उलझकर प्रगति करता जाता है व्रतों के परिपालन में जड़ता तभी आती है, जब व्रतों की लीक पीटी जाती है-लीक पिटती रह जाती है, जीवन आगे बढ़ चुका होता है। मक्षिका के स्थान पर मक्षिका तो मारकर ही रखी जा सकती है। जड़ शब्दों की पकड़ में गतिशीलता कहाँ?
व्रतपालन का विधान या संकेत या संख्या इसलिए नहीं है कि वैसा करने से मनुष्य को प्रतिष्ठा या स्वर्ग का ऐश्वर्य मिले। किसी भी प्रकार की कामना की आकंक्षा से व्रत का पालन करना भयजन्य पलायन है, समस्याओं से मुंह चुराना है और सदाचरण का, सामाजिक दायित्व का सौदा करना है-अपने को बेचने जैसा है। शक्ति और सामर्थ्य से हीन दासवृत्ति से भरा हुआ मनुष्य आदेशों का अक्षरश: पालन करके स्वामिभक्त या प्रिय पात्र बना रह सकता है और इस कला में वह अभ्यास द्वारा इतना निष्णात भी हो सकता है कि उसमें कोई गलती या चूक न हो इतना यांत्रिक बन सकता है। लेकिन यही सबसे बड़ी आत्मबंचना है। आत्मबंचक या जड़ मनुष्य व्रतों का पालन बड़ी सावधानी तथा सतर्कतापूर्वक करते हैं। बार-बार वे शास्त्रों के प्रमाण भी प्रस्तुत करते हैं। नैतिकता का, संयम का धार्मिकता का मुखौटा लगाकर विचरने वाले ही ये लोग व्रतों से अपने बचाव के अनेक उपाय खोज लेते हैं। इस लोकव्यापी जड़ता में से ही दिखावा, छलावा और भुलावा निपजता है। नियमों तथा आदेशों का पालन तो सैनिक और कारखाने के मजदूर भी करते हैं, सर्कस के प्राणी भी करते हैं। लेकिन इसे आंतरिक विकास का प्रमाण नहीं कहा जा सकता। नियमों या व्रतों का अन्धानुकरण आकर्षक और चमत्कारिक हो सकता है, लेकिन उसमें स्वायत्त चेतना नहीं होती । श्रावक व्रतों का पालन व्रतों से ऊपर उठने के लिए करता है, अपने को माँजने के लिए करता है। व्रतातीत अवस्था ही मुक्ति है।
भगवान् महावीर ने अहिंसा, संयम व तप रूप धर्म को 'उत्कृष्ट मंगल' कहा है। जिस व्यक्ति में इसका दर्शन होता है, उसे देवता भी नमन करते हैं। पाँच व्रतों को भी इन तीनों में समाहित किया जा सकता है अचौर्य और अपरिग्रह संयम में आ जाते हैं, सत्य और ब्रह्मचर्य तप में और सबके सब अहिंसा में समा जाते हैं अहिंसा पारम्परिक रूढ़ अर्थ में जीवदया या जीवरक्षण नहीं है अहिंसाव्रती श्रावक के समक्ष अन्तर्मुखी जीवन की सहस्रविध धाराएँ नित्य नये रूपों में व्यक्त होती रहती हैं और सभी धाराएँ परस्पर विरोधी भी भासती हैं। वस्तुतः अहिंसा तो आत्मवत् सर्वभूतेषु का चरम उत्कर्ष है । इसमें सीमा और मर्यादा का, प्रमाण और अंश का, संकल्प और विकल्प का, कम और ज्यादा का, सुविधा और असुविधा का प्रश्न ही नहीं उठता। वहाँ तो जीवन की प्रत्येक क्रिया अहिंसा से ओतप्रोत होगी। वही अभिव्यक्त होगी। क्रियाएँ या तो अहिंसक होती हैं या फिर हिंसक । आंशिक अहिंसा का व्रत लेकर कुछ क्रियाओं के करने में हिंसा की छूट लेना एक प्रकार से अपनी कमजोरी का बचाव करना है या अपनी वासना को छूट देना है। क्रिया मात्र में हिंसा मानकर अक्रियमाण होकर बैठ जाना भी अहिंसा का मजाक है। क्रिया का संबन्ध बाह्य से अधिक आंतरिक है। क्रियाशीलता के अभाव में अहिंसा की कल्पना तक नहीं की जा सकती। क्रियाशीलता ही अहिंसा की कसौटी है।