Book Title: Anekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04 Author(s): Jaikumar Jain Publisher: Veer Seva Mandir Trust View full book textPage 8
________________ 8 अनेकान्त 64/1 जनवरी-मार्च 2011 देख रहे थे, उसे साकार करने के लिए सुविधा का या यथाशक्ति त्याग का उपाय शायद यथेष्ट फलदायक नहीं था, क्योंकि विषमता चरम सीमा तक पहुंच गयी थी। हर क्षेत्र में विषमता थी, शोषण था और महावीर थे समता के प्रेरक । समाज में समता लाने के लिए वैभव की प्रतिष्ठा को नीचे उतारना आवश्यक था। अपहरण के द्वारा प्रतिष्ठित होने की अपेक्षा महावीर ने अपरिग्रह द्वारा प्रतिष्ठित होने का मार्ग खोला और हम देखते हैं कि झुण्ड के झुण्ड लोग, युवक और युवतियाँ उनके श्रमणसंघ में शामिल होते हैं, श्रमण बनते हैं। और घर-घर से भिक्षा लेकर समता की अलख जगाते हैं। क्रांति के संवाहक युवक ही होते हैं। जब-जब भी देश और समाज में किसी प्रकार की क्रांति चेतना जगी है, तो उसकी मशाल युवकों के हाथों में रही है। महावीर की धर्मक्रान्ति का संचालन भी युवकों ने ही किया। बाद में, ऐसे गृहत्यागी श्रमणों का समर्थ संघ बन जाने पर, यह आवश्यकता अनुभव होने लगी कि साधना का एक ऐसा मार्ग भी होना चाहिए जो सामान्य गृहस्थ कें उपयुक्त हो और श्रमणधर्म का पूरक और संरक्षक भी हो। चूँकि श्रमणधर्म का पालन सामान्यतः कठिन होता है, अतः श्रावकधर्म का मध्यम अर्थात् अणुव्रत का मार्ग खुल गया । यह इसलिए भी आवश्यक था कि सामाजिक मर्यादाएँ तथा संतुलन बना रहे, स्वेच्छाचार पर नियंत्रण रहे, समाज में नैतिक वातावरण वृद्धिंगत हो और श्रमणों का संरक्षण भी हो। श्रावक के आचार-धर्म को भले ही अणुव्रत का मार्ग कहा जाता हो, किन्तु वह श्रमण-धर्म से कम महत्त्व का कतई नहीं है। महाव्रत अंगीकार करके सर्वसंगपरित्यागी तथा अरण्यविहारी बनकर मुक्ति की साधना करने की अपेक्षा परिवार के बीच, समाज में रहकर अपने को संयत और लोककल्याणाभिमुख बनाने में अधिक पुरुषार्थ एवं तपस्या अपेक्षित है। ऐसे अणुव्रती या श्रावक को लोकसंग्रह भी करना पड़ता है, पारस्परिक सौहार्द भी जगाना पड़ता है, व्यक्तिगत तथा सामाजिक बुराइयों का सामना भी करना पड़ता है। वह 'कर्म' से विमुख नहीं हो सकता । निरन्तर व्यवहार निरत तथा लोक संपर्क में रहते हुए उसे मन, वचन और कायगत संयम रखना पड़ता है। पग-पग पर उसके सामने आकर्षण और प्रलोभन की फिसलन होती है, किन्तु उसे प्रतिपल सतर्क रहना पड़ता है उसका जीवन वास्तव में सामूहिक साधना का कर्मक्षेत्र होता है। एक प्रकार से वह अपने गले में सर्पमाल धारण करके कर्मक्षेत्र में उतरता है। है। वह पलायनवादी नहीं होता। वह कर्दममय सांसारिकता में ही कमल की भांति ऊपर उठता है। स्वामी समंतभद्र अपने समय में बड़ी क्रांतिकारी बात कह गये हैं कि मोही मुनि से निर्मोही गृहस्थ उत्तम होता है किन्तु वास्तव में देखा जाय तो गृहस्थों का जो क्रीडाक्षेत्र है, वह मुनियों के लिए दुष्कर तपस्याभूमि है-मुनि उसमें अपने को सम्हाल ही नहीं सकते। आज तो आचार्य समन्तभद्र को भी उलटकर अपनी बात में संशोधन करके कहना पड़ता कि 'मुनि भले ही निर्मोही हो, लेकिन श्रेष्ठ तो अल्पांश मोही गृहस्थ ही माना जायेगा।' मानवधर्म का यथार्थ प्रतिनिधि वस्तुतः श्रावक ही है। श्रावक के आधारभूत व्रत बारह कहे गये हैं। श्रावकाचार विषयक ग्रंथों में इन व्रतों कीPage Navigation
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