Book Title: Anekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 9
________________ अनेकान्त 64/1, जनवरी-मार्च 2011 पाँच-पाँच भावनाओं तथा पाँच-पाँच अतिचारों का वर्णन भी मिलता है। इन व्रतों का सांगोपांग या अल्पांश में दृढ़तापूर्वक पालन करने वालों की तथा चोरी-छिपे विकारवृत्ति के प्रलोभनवश इनका भंग करने वालों की दृष्टांत-कथाएँ भी उद्बोधन के लिए लिखी हुई मिलती हैं। मनुष्य ही नहीं, अपितु सिंह, हाथी, सर्प, भालू, बैल और वानर जैसे पशु तथा पक्षी भी धर्म का उपदेश सुनकर तथा जातिस्मरण होने के फलस्वरूप किसी एक व्रत के अर्थात् अहिंसा के किसी एक अंश का पालन करके, कष्ट सहन करके, प्राणत्याग करके सद्गति प्राप्त कर चुके हैं। अपने एक पैर के नीचे आश्रय लेने वाले खरगोश की प्राणरक्षा की अनुकम्पा भावना से प्रेरित हाथी का जीव सद्गति प्राप्त करता है और बाद में वह श्रेणिकपुत्र मेघकुमार के रूप में जन्म लेता है। महावीर का दंश करने वाले चंडकौशिक सर्प की कथा प्रसिद्ध ही है। आज भी परिवारों में परस्पर विरोधी वृत्ति के जानवर प्रेम करते हुए पाये जाते हैं। ये प्राणी बुद्धि में मनुष्य की अपेक्षा निम्नकोटि के माने जाते हैं, लेकिन इनका स्नेहपूर्ण बर्ताव और एक दूसरे के लिए त्याग देखकर मनुष्य गद्गद हो जाता है। कई बार ये मूक प्राणी मनुष्य के गुरु या मार्गदर्शक तक बन जाते हैं। ये नहीं जानते कि वे किस व्रत का किस अंश में पालन कर रहे हैं और उनकी क्या गति होगी? हाँ, स्नेह की, ममता की, करुणा की और पारस्परिकता की साधना मनुष्य के लिए महाकठिन है। श्रावक इसी महाकठिन साधना करने में जीवन को खपाता है। व्रतों की संख्या का या उनकी शास्त्रीय परिभाषाओं का, सीमा-रेखा का महत्त्व सुविस्तृत एवं मार्गसूचक पट्टिकाएँ हैं कि मार्ग लम्बा है या कंटकाकीर्ण, सूना है या भयावना; लू-लपट वाला है या धूल-धक्कड़ से भरा है; ऊबड़-खाबड़ है या सीधा-समतल टेढ़ा-मेढ़ा है या ऊँचा-नीचा। मनुष्य की शारीरिकशक्ति एवं सामर्थ्य की एक सीमा है। यह मनुष्य की विवेकशक्ति पर निर्भर है कि वह देश, काल, शक्ति, परिस्थिति देखकर पथ पर कितनी ऊँचाई तक जाने में समर्थ है। व्रत एक भी हो सकता है, बारह भी हो सकते हैं और बारह सौ भी हो सकते हैं। एक व्रत के अंश के अनन्त आयाम हो सकते हैं और प्रत्येक व्यक्ति के लिए अलग-अलग हो सकते हैं। जैनधर्म ने सदैव व्यक्तिस्वातन्त्र्य को सर्वोपरि महत्त्व दिया है। मनुष्य का धर्म वैयक्तिक और सामूहिक दोनों प्रकार का है। उसके पुरुषार्थ की सफलता इसी में है कि वह दोनों में संतुलन साधे। प्रवाहशील परंपरा में से अपनी उपयोगिता और आवश्यकतानुसार सारतत्त्व ग्रहण करके आगे बढ़ने में ही सार्थकता है। यह विज्ञान और विकासशीलता का युग है। यों युग कभी अवैज्ञानिक नहीं रहा, समाज सदैव प्रगतिशील ही रहा है। फिर भी आज युग अन्तरिक्ष वैज्ञानिकता में प्रवेश कर गया है। मानव ने अपने से सहस्रों गुना शक्ति, यंत्रों में संचित करके समय और देहशक्ति की बचत करने में सफलता प्राप्त कर ली है। समाज का स्वरूप और नक्शा बड़ी तेजी से बदलता जा रहा है और यह बदलाव ही उसके विकास का द्योतक है। इस बदलाव से मनुष्य नित नूतनता प्राप्त करता है और जीर्ण-शीर्ण को उतारता-फेंकता चलता है। शास्त्र-निर्देशित विधान या परिभाषाएँ उसके समक्ष नये-नये परिवेश तथा नये-नये अर्थ में

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