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नथमल विलाला का भक्ति काव्य
कर जुग जोरि चरन तुम पूजा, श्रवन सुनौं जिन वानी। जो प्रचंड दुति धरै, महामणि प्रति छवि वारी। नेत्र जुगल करि रूप निहारो, सीस नवाऊ प्रांन । कांच षंड के माहि, सोज दुति कहा तिहारी ॥२० तीन जगत के स्वामी तुम हो, तारन पोत समान :
हरि हर प्रादिक देव दोष मैं, भलो ज मान्यौ । 'सेवग' मन परतीति उपाई, जीय मैं करि सरधान ।।
वीतराग तुम रूप जिन्हौं, लखि के पहिचान्यो । दोषों को दूर करने की सतर्कता वैष्णव भक्तो की
तुम सरूप कौं देखि चित्त, तुम मांहो लुभाव। अपेक्षा जैन भक्तों में अधिक रही है। जिनेन्द्र की भक्ति
अन्य मनोहर रूप, भवांतर मैं न सुहावै ॥२१ भावना मे आकठ निमग्न रहने के आकाक्षी नथमल कषायों के नियन्त्रण सम्यक्त्रय की धारणा तथा जिनवाणी की समवशरण मे स्थित तीथंकर की छवि का भक्त नथ. अनुपालना के प्रति निरन्तर सचेष्ट है ...
मल ने कई छन्दों में बड़ा मनोरम चित्र 'जीचा है। सभी समझि सयाने हो लाल ।
दास्य भक्तो की तरह नथमल आराध्य की नाम महिमा नरभव कुल श्रावक को पायो, पापो क्यों न संभाल ।
को भी निष्ठापूर्वक प्रस्तुत करते हैकोष मान मद मोह विष छकि, रिज प्रातम लौ गाल । प्रलय पवन करि उठी अगिन, ता सम भयकारी। नरक मांहि तू जाइ परंगो, नाना दुख तोहि साल ।
निकसत सिषा फुलिंग, निरन्तर जलत दुषारी। दरसन ग्यांन चरन चित धरिक, जिन वानी जो पाल ।
किधौ जगत सब भसम करंगी, सनमुख आवत । तो सूधो सिवपुर को पहुंचे, मुकतिवघू बरनाल । नाम नीर तुम लेत अगिन सो, वेग नसावत ॥ श्रीगुरु सिष्या यो बतलाई, जो इस मारग चाल । फेर न भरमैं जग में भाई, 'सेवग' कहै दरहाल । सवत् १८१८ वि० से सवत् १८४८ वि• तक तीन 'सेवक विलास' में संग्रहीत पदो के अतिरिक्त नथमल
दशको म भरतपुर, हिन्डौन और करौली तीनो स्थानों की एक अन्य रचना 'भक्तामर स्तोत्र भाषा' हिन्डोन मे
पर सभी काव्यरूपो और विभिन्न छन्दो में काव्य रचना
करने वाले नथमल विलाला ब्रजभाषा और ब्रज संस्कृति स्थित महावीर जी क मन्दिर से अभी प्राप्त हुई है।
के कुशल चित्रकार है। मानतुगाचार्य के भक्तामर स्तोत्र से प्रभावित होने के 13 कारण इस काव्य की भाषा परिनिष्ठित है, किन्तु उसमे
रीतिकाल मे लिखित अपार जैन साहित्य का माधुर्य एवं तन्मयता देने वाली लय सर्वत्र विद्यमान है।
अपेक्षित मूल्याकन हिन्दी साहित्य के इतिहास को अमूल्य अन्य देवो की अपेक्षा वीतरागता ज्ञान और द्युति जिनेन्द्र
निधि होगा। प्रभु मे कवि ने अधिक देखी है..लोकालोक प्रकाश ज्ञान है, जो तुम मांही। हरि हर मादिक वेव विषै, सो किंचित नाही।
११०-ए, रणजीत नगर, भरतपुर (राज.)
मन्दिर भिक्षकों के लिए नहीं जैन धर्म एक विज्ञान है-कारण-कार्य सिद्धान्त पर वह अवलंबित है। जैसा बोओगे वैसा फल पाओगे, किन्तु आज जैनी धर्म विज्ञान को भूल गये हैं वे धन के लिए, पूत्र के लिये, यश के लिये मन्दिरों मे मनौती मनाते हैं। बैरिस्टर (चम्पतराय) साहब ने इस पर कहा था -- "जैन मंदिरों में भिक्षा मांगने की जरूरत नहीं है--जैन मन्दिर भिखारियो के लिये नही है। जो मोक्षाभिलाषी हों निर्ग्रन्थ होना चाहते हों उन्ही के लिये जैन मदिर लाभकारी है।" (स्व० बा० कामता प्रसाद)