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७६ : आनन्द प्रवचन : भाग १२
के साथ व्यभिचार में भी प्रवृत्त हो जाता है। कई बार जीत जाने पर उसका लोभ अत्यधिक बढ़ता जाता है।
इसी प्रकार जूए में हुई हार और जीत दोनों ही उसके नैतिक धन का सर्वनाश करने के कारण बनते हैं।
जूए के व्यसन से नैतिक अधःपतन का सुन्दर चित्रण श्री अमृतकाव्य संग्रह में किया गया हैजूवा का व्यसन कुजस करन,
सुखसम्पति हरन शिर पातक चढ़ावे है। कलह-दारिद्र्य को निकेत दुःखहेत,
भय-आपदा को खेत शुभक्रिया को नसावे है । स्वजन कुटुम्ब नहीं प्रीति और प्रतीत करे,
भीति ना करम की, अनीति ही सुहावे है। कहे अमोरिख सीख या हमारी मान,
तजि दे जूवा का खेल, जाते सुख पावे है ॥ भावार्थ स्पष्ट है।
वस्तुतः जूआ नैतिक धन्धों या आजीविका के नैतिक उपायों को छुड़ाकर अनीतिमय धंधों में प्रवृत्त करने वाला है। जब मनुष्य जूआ, सट्टा, वादा, गैर-हाजिर माल का सौदा आदि में से किसी भी अनैतिक धंधे को अपनाता है तो अपने पैतृक व्यवसाय या प्रचलित व्यवसाय, दूकान या अन्य आजीविका के नैतिक उपायों से किनाराकशी कर लेता है, अपने व्यावसायिक कार्यों में मन नहीं लगाता, विलम्ब से दूकान या फर्म में जाता है, लापरवाही करता है। परिवार वाले यदि उससे धूत का अनैतिक धंधा छुड़ाकर किसी नैतिक धंधे में लगा भी दें तो वह उससे ऊबकर भाग खड़ा होता है । निष्कर्ष यह है कि जूआ मनुष्य का मन नैतिक व्यवसाय से भटका देता है।
___ अतः जूआ मनोविनोद नहीं, अपितु मन को अनैतिक मार्ग में भटकाने वाला मनोविकार है।
इसीलिए साधु-संत सब प्रकार के द्यूत का त्याग करने के लिए कहते हैंजुआ का खेल मत खेले, यू संत कहे समझाय के ॥ध्र व॥ जुआ और सट्टा यह दोई, इन कामों में लगा जो कोई,
वह निज सम्पत् बैठा खोई। कुछ लंबी नजर लगाय के, तू सोच हिताहित पहले ॥१॥ करते रंज दाव जब हारे, मन में खोटी नीति विचारे,
निर्दय होय मनुष्य को मारे, कोई मरते शस्तर खाय के, कोई डोलत फिरत अकेले ॥२॥ १. श्री अमृत काव्य संग्रह, सुबोध शतक ।
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