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३२० : आनन्द प्रवचन : भाग १२
करता है । एक प्राचीन श्लोक में धर्म की शरणदातृत्व आदि विविध शक्तियों से युक्त परिभाषा का निरूपण इस प्रकार किया है -
हरति जननदःखं मुक्तिसौख्यं विधत्त, रचयति शुभबुद्धिं पापबुद्धिं निहन्ति । अवति सकल जन्तून्, कर्मशन न निहन्ति,
प्रशमयति मनो यस्तु तं बुधा धर्ममाहुः ॥ "अर्थात्-जो जन्म-मरण के दुःखों का हरण कर लेता है, मुक्ति-सुख प्राप्त कराता है, मनुष्य की बुद्धि को शुभ या शुद्ध बना देता है, उसकी पापबुद्धि नष्ट कर देता है, समस्त प्राणियों की रक्षा करता है, आत्मा के विकास को रोकने वाले आवरणरूप कर्मशत्र ओं का नाश करता है तथा जो मनुष्य के मन में प्रविष्ट दिषय-कषाय आदि विकारों को शान्त कर देता है, उसे तत्त्वज्ञ पुरुष धर्म कहते हैं।"
धर्म की इस गुणात्मक परिभाषा से यह स्पष्ट प्रतीत हो जाता है कि धर्म ही संसार के जन्म-मरणादि से भयत्रस्त जीवों को शरण दे सकता है। इसीलिए उत्तराध्यन सूत्र में स्पष्ट कहा है
जरामरणवेगेणं, बुज्झमाणाण पाणिणं ।
धम्मो दीवो पइट्ठा य, गई सरणमुत्तम । “जन्म, जरा, मृत्यु, रोग, शोक आदि वेगों से पीड़ित प्राणियों के लिए धर्म ही द्वीप के समान एकमात्र आश्रयस्थल है, सहारा है, धर्म ही शरणदाता है, धर्म ही गतिप्रगति देने वाला है।"
क्या भयंकर रोग, व्यथा या पीड़ा से दुःखित-चिन्तित व्यक्ति का दुःख मातापिता आदि पारिवारिक जन मिटा सकते हैं ? क्या वे उस पीड़ा या कष्ट को बाँट सकते हैं या स्वयं ले सकते हैं ? ऐसा तो कदापि सम्भव नहीं है; परन्तु धर्म की शरण ग्रहण करने वाला अपने अशुभकर्मों के फल को अपने उपादान का विचार करके समभावपूर्वक सह सकता है, समभावपूर्वक कष्ट सहन करने से और धर्म का आचरण दृढ़ श्रद्धापूर्वक संकल्प करने से पुराने अशुभकर्मों का क्षय होगा और जो आत ध्यान करने से नये कर्म बंधने वाले थे, वे रुक जाएंगे, इस प्रकार दुःख या पीड़ा का अनुभव बहुत ही कम होगा, कष्टों को वह प्रसन्नता से सहन कर सकेगा। इस सम्बन्ध में उत्तराध्ययन सूत्र की एक शास्त्रीय कथा लीजिए
युवक अनाथी मुनि के तेजस्वी रूप-रंग, लावण्य, क्षमा, सहिष्णुता, निर्लोभता और निःसंगता आदि देखकर मगधराज श्रेणिक ने बहुत ही श्रद्धा और आश्चर्य से वन्दन-नमन करके सविनय पूछा- 'मुनिवर ! आप इस तरुणावस्था में सांसारिक सुखभोगों को छोड़कर श्रमणधर्म में क्यों दीक्षित हुए ? क्या कोई अभाव था ?"
__ अनाथी मुनि ने शान्त और स्निग्ध स्वर में कहा-"राजन् ! मैं अनाथ था, संसार
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