Book Title: Anand Pravachan Part 12
Author(s): Anand Rushi, Shreechand Surana
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 358
________________ धर्म ही शरण और गति है : ३३१ कहाँ गठरी बाँधकर रखेगा ? अतः आवश्यक प्रवृत्ति तो करनी ही होगी, परन्तु उन प्रवत्तियों की गति धर्म के नियंत्रण में होगी। मन, वचन, काया से जो भी प्रवृत्ति होगी, वह धर्म के प्रकाश मे होगी। निवृत्ति भी होगी, वह भी धर्म के प्रकाश में होगी। इस दृष्टि से धर्म गति-प्रगति देता है । वह कहता है धर्माचरण में आगे से आगे बढ़ते जाओ, गति करते जाओ प्रतिक्षण प्रत्येक प्रवृत्ति या कार्य में धर्म को गति दो; आगे बढ़ने दो। धर्म-प्रगति में बाधक तत्त्वों को ठुकराकर धर्म में आगे बढ़ो धर्म कहता है-तुम्हारी प्रगति में, विकास में बाधक तत्त्वों को ठुकरा दो, उन्हें छोड़ दो और आगे बढ़ो । जैसे—कुछ धार्मिक नियमोपनियम ऐसे हैं, जो बहुत प्राचीन काल में बने थे, आज वे विकासघातक, युगबाह्य एवं दम्भवर्द्धक बन गए हैं, उन पर चलना असंम्भव-सा हो गया है, वे केवल कुरूढिमात्र रह गए हैं, तो उन्हें धर्म की प्रगति में बाधक समझकर उनमें संशोधन, परिवर्द्धन करके धर्म में आगे बढ़ो। ___ इसी प्रकार तपस्या, धर्मपालन आदि के कारण कुछ सिद्धियाँ, उपलब्धियां या लब्धियां प्राप्त हो गईं। किन्तु साधक उनके मोह में या अहंकार में पड़कर उनसे स्वार्थसिद्धि, प्रसिद्धि, आडम्बर या चमत्कार प्रदर्शन करता है तो वह अपना आत्मप्रकाश आत्मविकास वहीं ठप्प कर देता है, इस सम्बन्ध में धर्म कहता है-उन भयों, प्रलोभनों, ऋद्धि-सिद्धियों, लब्धियों-उपलब्धियों आदि को प्रगति में बाधक समझकर उन्हें ठुकरा कर या उनकी उपेक्षा करके आगे बढ़ो। एक लकड़हारा था, वह प्रतिदिन जंगल से लकड़ी काट लाता और बाजार में बेचकर अपनी आजीविका चलाता था। एक दिन उसकी दयनीय दशा देख एक सिद्ध पुरुष को दया आई, उन्होंने उससे कहा-"तुम एक ही जगह लकड़ी क्यों काटते हो ? आगे क्यों नहीं बढ़ते ?" सिद्धपुरुष का कहना मानकर वह अब आगे बढ़ा तो उसे चन्दन के वृक्ष मिले। इन्हें बेचने पर अधिक धन मिला । कुछ दिन बाद फिर उसे सिद्धपुरुष की बात याद आई-"आगे बढ़ो।" तदनुसार वह आगे बढ़ा तो उसे ताँबे की खान मिली, फिर कुछ दिन बाद और आगे बढ़ा तो क्रमशः चांदी, सोने और हीरे की खान मिली । लकड़हारा बहुत ही प्रसन्न हुआ और अपने राष्ट्र का सबसे बड़ा धनाढ्य हो गया। इसी लकड़हारे की तरह मनुष्य धर्ममार्ग में उत्तरोत्तर गति-प्रगति करता जाए तो उसे क्रमशः चतुर्थ, पंचम आदि गुणस्थानों से लेकर बारहवें-तेरहवें गुणस्थान प्राप्त हो सकते हैं, उसकी आत्मा आत्मिक गुणों से पूर्णतः प्रकाशमान हो सकती है, परन्तु कब ? जब वह पीछे न हटकर, धर्म के बल से आगे से आगे ही बढ़ता जाएगा। धर्ममार्ग श्रेय-मार्ग है, वह प्रेयमार्ग से हटकर जाता है। सांसारिक पदार्थों, सुख-भोगों आदि का प्रलोभन प्रेयमार्ग है। श्रेयमार्ग में गति करने वाले साधक को Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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