Book Title: Anand Pravachan Part 12
Author(s): Anand Rushi, Shreechand Surana
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 361
________________ ३३४ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ रहे, चाहे नगर में, जंगल में रहे या एकान्त गुफा में, अकेले में हो चाहे जन समूह में, धर्म को छोड़कर कोई कार्य नहीं कर सकता। खान-पान में, सोने-जागने में, चलनेफिरने या बैठने में, बोलने में या किसी भी कार्य में धर्मदृष्टि वाला व्यक्ति धर्म को छोड़कर कोई भी प्रवृत्ति नहीं करता । धर्म उसकी साँस-साँस में ओतप्रोत हो जाता है। शास्त्र में इस प्रकार धर्म का सेवन करने वाले व्यक्ति के लिए कहा गया है- 'अट्ठिमिज पेमाणुरागरत्त' उसकी हड्डियाँ और रग-रग धर्मानुराग से रंगी हुई होती हैं । धर्म-शुद्ध धर्म उसके रोम-रोम में रम गया है। ऐसा व्यक्ति बीच में कष्ट या आफत आने पर धर्म के प्रति अधिकाधिक श्रद्धालु और सुदृढ़ हो जाता है। .. श्रमण भगवान् महावीर ने स्थानांगसूत्र (स्था० ४) में दुःख आ पड़ने पर मनुष्य कसे घबरा जाता है ? इसे समझाने के लिए चार गोलों का दृष्टान्त दिया है। वे चार गोले यों हैं--(१) मोम का गोला, (२) लाख का गोला, (३) काष्ठ का गोला और (४) मिटटी का गोला। मोम का गोला जैसे दूर से ही अग्नि की गर्मी लगते ही पिघलने लगता है, वैसे कई व्यक्ति दुःख आने वाले हैं, यह सुनते ही घबरा जाते हैं और पहले से ही घबराकर काम बिगाड़ बैठते हैं । ऐसे लोग घबराकर ज्योतिषी या मांत्रिक-तांत्रिक अथवा सामुद्रिक शास्त्री के पास दौड़ जाते हैं । ग्रहशान्ति कराते हैं, इस प्रकार भविष्य में आ पड़ने वाले माने हुए कल्पित दुःखों के निवारणार्थ कृत्रिम उपाय करने में जुट जाते हैं, पर वे व्रत-नियम,तप-संयम रूप धर्माचरण नहीं करते, धर्म सेवन को वे दुःखनिवारण का कारण नहीं मानते । क्योंकि उनकी धर्मदृष्टि ही नहीं है, उनमें धर्म संस्कार भी नहीं है । न धर्मरुचि है, और न ही धर्माचरण का वातावरण उनके इर्दगिर्द है। कई लोग लाख के गोले के समान होते हैं, जैसे लाख का गोला अग्नि के पास रखा जाता है, तभी पिघलने लगता है, वैसे ही कई मनुष्य दुःख के दिन निकट आते ही हताश, निराश और अनुत्साही होकर निरुपाय बन जाते हैं । वे किंकर्तव्यविभूढ़ होकर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते हैं। उन्हें दुःख निवारण का कोई भी उपाय नहीं सूझता । वे तो केवल दुःख के मारे रोते-चिल्लाते हैं, आत ध्यान करते हैं । परन्तु वे लोग दुःख का प्रतीकार करने के लिए धर्म की शरण नहीं लेते, न ही धर्मा चरण करते हैं, त्याग, तप, व्रत-नियम, धर्मध्यान सामायिक आदि तो वे परलोक की चीज या सुखी-सम्पन्न लोगों के करने की वस्तु मानते हैं; क्योंकि वे धर्मसंस्कारों से दूर रहे, इसलिए ऐसी संकटापन्न स्थिति में धर्मसेवन की बात उन्हें सूझती ही नहीं। तीसरे प्रकार के लोग काष्ठ के गोले के समान हैं। जैसे काष्ठ का गोला अग्नि में रखा जाता है तभी वह जलकर थोड़ी देर में भस्म हो जाता है वैसे ही कई लोग दुःख से घिरने के बाद उसी दुःख की चिन्ता-ज्वाला में जलकर भस्म होने लगते हैं, और वे सत्त्वहीन हो जाते हैं। सत्त्वहीनता उस व्यक्ति की कमर तोड़ देती है, फिर सस्वहीन व्यक्ति भविष्य में निरुपाय बनकर इधर-उधर देखता ही रहता है। सत्त्वहीनता उसे उठने नहीं देती। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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