Book Title: Anand Pravachan Part 12
Author(s): Anand Rushi, Shreechand Surana
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 373
________________ ३४६ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ वृद्धा- "आप यह क्या फरमाते हैं ? यह भी धर्म का ही प्रताप है । और भी सुख के साधन धर्म की ही कृपा से प्राप्त हुए हैं । सच बात कहने में मैं नहीं झिझकती।' साधु-"पति-पत्नी अविनीत और माता से झगड़ा करने वाले मिलते तो तुम्हें पोता होने की फिक्र न रहती।" वृद्धा-“जिसने खोटे कर्म किये हों, उसी को ऐसे लड़का-बहू मिलते हैं । आपकी कृपा से, कुछ धर्मध्यान किया, उसी का यह प्रताप है।" साधु-'बहन ! तुम इतने सब सुख-साधनों की प्राप्ति धर्म के प्रताप से मानती हो, किन्तु एक पोता नहीं दिया, उसमें तुम धर्म पर इतनी नाराज हो गई कि उसे छोड़ बैठीं। भला, जो धर्म इतनी सब चीजें दे सकता था, क्या उसमें इतनी ताकत नहीं है कि वह तुम्हें एक पोता दे दे ? वास्तव में यह धर्म का दोष नहीं, तुम्हारे ही किसी अन्तराय कर्म का दोष है। परन्तु तुम तो धर्म को छोड़कर तथा दूसरों से छुड़ाकर और अधिक अन्तराय कर्म बाँध रही हो।" वृद्धा-“धन्य हो महाराज ! क्षमा करिये, मुझसे बहुत भूल हुई । मुझे कोई इस प्रकार समझाने वाला नहीं मिला । मैं धर्म का उपकार मानना भूलकर कृतघ्नी और पापिनी बनी । अब मैं समझ गई । मेरा अज्ञान और मोह दूर हो गया । आपने मुझ पर असीम कृपा करके सन्मार्ग बताया । अब मैं पुनः धर्म की सेवा करूंगी।" इस प्रकार वृद्धा ने पुनः धर्म की सेवा-उपासना की। उसका अन्तराय कर्म टूटा और दूसरे वर्ष पोता भी हो गया। उसे फिर कभी धर्म पर अश्रद्धा नहीं हुई। बन्धुओ ! आप में से भी कई भाई-बहन ऐसे होंगे, जो अपनी मनोवांछा पूरी न होने पर धर्म के प्रति अश्रद्धा लाकर उसे छोड़ देते हैं । परन्तु याद रखिये, इस प्रकार धर्म की दुर्दशा एवं बदनामी करने से आपकी ही दुर्दशा एवं बदनामी होती है, धर्म का कुछ भी नहीं बिगड़ता। उसकी महिमा तो शाश्वत और अटल है । भगवान् महावीर का अमोघ वचन है "धम्मं च कुणमाणस्स सफला जंति राइओ।" "धम्म पि काऊणं, जो गच्छइ परं भवं.."सो सुही होइ।" "धम्मसद्धाएण सायासोक्खेसु रज्जमाणं विरज्जइ ।" "धर्माचरण करने वाले व्यक्ति के दिन-रात सफल व्यतीत होते हैं।" "धर्म की आराधना करके जो परभव में जाता है, वह सुखी होता है।" "धर्म पर हढ़श्रद्धा हो जाने से व्यक्ति सातावेदनीयजनित पौद्गलिक सुखों की आसक्ति से विरक्त हो जाता है।" वास्तव में जिसकी धर्मनिष्ठा अटल हो जाती है, उसे सुख-सुविधाओं की, 1. उत्तराध्ययनसूत्र १४/२५, १६/२१, २६/६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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