Book Title: Anand Pravachan Part 12
Author(s): Anand Rushi, Shreechand Surana
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 374
________________ धर्म- सेवन से सर्वतोमुखी सुख प्राप्ति: ३४७ सांसारिक सुखों की कोई चिन्ता नहीं रहती, सांसारिक दुःख भी उसे दुःखरूप महसूस नहीं होते । वह सारे संसार के कल्याण के लिए जो भी दुःख, आफत, संकट अपने पर आते हैं, उन्हें समभाव से सहर्ष सह लेता है । धर्मसेवन से सर्वतोमुखी सुख के तीन मूल माध्यम अब प्रश्न यह है — धर्मसेवन से सर्व सुख प्राप्ति होती है, परन्तु उसके सेवन के माध्यम कौन-कौन-से हैं ? दशवैकालिक सूत्र की इस गाथा में यह स्पष्ट बता दिया है " धम्मो मंगलमुविकट्ठ, अहिंसा संजमो तवो । " "धर्म उत्कृष्ट मंगल (सुख) है । वह धर्म अहिंसा, संयम और तप के माध्यम से होता है ।" अहिंसा के माध्यम से जब धर्म का सेवन व्यक्ति करता है, तब वह प्राणिमात्र प्रति आत्मीय भाव, आत्मौपम्य भाव लाता है, वहाँ तेरे-मेरे की संकीर्ण भावनाएँ समाप्त हो जाती हैं । वह अपनत्व के संकीर्ण घेरे में से निकलकर परिवार समाज-राष्ट्र और उससे भी बढ़कर विराट् विश्व में फैल जाता है, तभी वह स्थायी सुख-शान्ति, संतोष और आत्म-समृद्धि प्राप्त कर लेता है । जिसके जीवन में तंगदिली है, जो तेरे-मेरे के संकीर्ण घेरे में बन्द हो जाते हैं, तब संकटों और दुःखों के काँटे उनके चारों ओर विखर जाते हैं । यह मैं हूँ, यह मेरा है, मैं स्वामी हूँ, मेरे सब दास हैं, मैं ही अकेला संसार के सुखों को प्राप्त करू ं, दूसरे मरें चाहे जीएँ, सुखी हों या दुःखी, मुझे क्या मतलब ? इस प्रकार की दानवी भावना पाप का पुंज इकट्ठा करती है और उसके फलस्वरूप दुःखों की प्राप्ति होती है अन्तर् में भी दुःखों की सृष्टि कर लेती है । अहिंसा के माध्यम से धर्म-पालन करने वाले व्यक्ति में स्वार्थ के अतिरेक की यह रेखा अंकित नहीं होती । भगवान् महावीर ने समग्रत्व में ही सुख की निधि - पुण्यराशि बताई है सव्व भूयपभूप्यस्स सम्मं भूयाई पस्सओ । पहिआसवस्स दंतस्स पावकम्मं न बंधइ ।। "समस्त संसार की आत्माओं को अपनी आत्मा के तुल्य समझने वाला, आस्रव द्वारों को अवरुद्ध करने वाला दान्त महापुरुष कभी पापकर्म से लिप्त नहीं होता । " जो पापकर्म से लिप्त नहीं होता, वह एकमात्र पुण्यराशि के संचय के फलस्वरूप सुख की निधि प्राप्त कर लेता है, अथवा पुण्य और पाप दोनों प्रकार के कर्मों क्षय करके मोक्ष की अनन्त सुख - निधि अथवा उसी का बहुलांश सुख प्राप्त कर लेता है । जैसा दुःख तुझे होता है, वैसा ही जैसे तू अपने जीवन में सुख चाहता है, वैसे ही सभी प्राणी चाहते की विराटता जब मन में सबको होता है, हैं, इस प्रकार १. दशवेकालिकसूत्र १ । १ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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