Book Title: Anand Pravachan Part 12
Author(s): Anand Rushi, Shreechand Surana
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 364
________________ धर्म-सेवन से सर्वतोमुखी सुख-प्राप्ति ३३७ होने पर भूल से पुनः बीमा चालू न कराने के कारण गोदाम के बीमे की राशि न मिल सकी। _ 'विपत्ति आती है, तब अकेली नहीं आती, किन्तु दल-बल-सहित आती है' इस कहावत के अनुसार सेठ के धर्मनिष्ठ परिवार पर विपत्तियों के बादल टूट पड़े। सेठ धर्म के स्वरूप को समझते थे, कर्म की विचित्रता को भी जानतेमानते थे, धन-वैभव की क्षणभंगुरता भी उनके ध्यान में थी, दुःख से पीड़ित होते हुए भी वे अधिकधिक धर्मनिष्ठ बनने लगे, वे अधिकाधिक धर्मध्यान और धर्मश्रवण करने लगे। स्थानांग सूत्र में उल्लिखित चार गोलों के समान मानवों में से वे चतुर्थ प्रकार के मिट्टी के गोले के समान धर्मिष्ठ मानव थे । जैसे-जैसे वे दुःखाग्नि में तपते जाते थे वैसे-वैसे वे धर्मश्रद्धा में दृढ़ होते जाते थे। उन्होंने बाकी बची हुई मिल्कियत, सामान, फर्म का मकान एवं आभूषण आदि बेचकर पाई-पाई कर्ज चुका दिया । उन्होंने पराई रकम दबाकर दीवाला निकालने का जरा भी विचार नहीं किया । सबकी रकम याद करके चुका दी । जिन-जिनकी वस्तुएँ गिरवी रखी हुई थीं, उनकी वस्तुएँ भी याद याद करके पहुँचा दी । सेठ यद्यपि निर्धन हो चुके थे, परन्तु वे आत्मिक धन एवं धर्मरूपी धन से सुशोभित हो गये । अपने बचे हुए एक छोटे-से मकान में बालकों सहित रहने लगे । अब तो उनके यहाँ कोई भी नहीं फटकता था । सगा भाई भी सेठ से विमुख हो गया, दूसरे सम्बन्धियों का तो कहना ही क्या ? सेठ ने अपने को परिस्थिति के साथ एडजस्ट कर लिया। वह उदर-पूर्ति के लिए गाँवों में जाकर साग-भाजी बेचने लगा। बालक भी धीरे-धीरे सयाने होने लगे। धार्मिक संस्कारों से वे अब समृद्ध हो गए थे। परन्तु कर्मों से छुटकारा कहाँ हुआ? अवस्था और संकटों से जर्जरित सेठ को रुग्ण-शय्या पकड़नी पड़ी। अबोध बालकों की चिन्ता से ग्रस्त सेठ की बीमारी बढ़ती गई। समझदार धर्मसंस्कारी-बालकों ने पिता से कहा-"पिताजी ! आप हमारी चिन्ता बिलकुल न करें । हम धर्म के प्रताप से आत्मधन से बहुत समृद्ध हैं । आपकी कृपा से प्राप्त हुए धर्म-संस्कारों से हमारा जीवन ओत-प्रोत है । अतः आप हमारी चिन्ता किये बिना जिनेन्द्र भगवान् के चरण कमलों में अपना चित्त पिरो दें। आत्मकल्याण के लिए तत्पर रहें । सदैव आनन्द में रहें, जो कुछ परिस्थिति आ पड़े, उसे धीर बनकर हंसते-हँसते सह लें। मन में यही सोच लें कि मेरे जैसे कर्म होंगे, तदनुसार मुझे फल मिले हैं । हृदय में प्रभु के प्रति श्रद्धा रखकर कर्म-विकारों को दूर करें। आर्त्त-रौद्रध्यान को छोड़कर धर्मध्यान में अपना चित्त लगाएँ । संसार के प्रपंचों को छोड़ दें। मन को स्थिर रखकर कल्याण मार्ग में जोड़ें । आपका और हमारा सम्बन्ध तो केवल इसी जन्म का है, धर्म से सम्बन्ध जोड़े। वही सम्बन्ध स्थायी है। आपने ही तो यह सुभाषित सिखाया था Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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