Book Title: Anand Pravachan Part 12
Author(s): Anand Rushi, Shreechand Surana
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 369
________________ ३४२ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ विश्वास उठ जाता है । ये सब धर्म के प्रति शिथिलता के नमूने हैं। यदि कोई व्यक्ति धर्म के प्रति अखण्ड एवं सतत, अविचल अटल श्रद्धा रखकर उसका सेवन-आचरण करता है तो अवश्य ही उसके फल के रूप में उसे सभी प्रकार के इहलौकिक पारलौकिक एवं लोकोत्तर सुखों की प्राप्ति होती है । एक प्राचीन श्लोक इस बात का साक्षी है धर्माज्जन्मकुले शरीरपटुता सौभाग्यमायुर्बलं, धर्मेणैव भवन्ति निर्मलयशो, विद्यार्थसम्पत्तयः । कान्ताराच्च महाभयाच्च सततं धर्मः परित्रायते, धर्मः सम्यगुपासितो नरभवे स्वर्गापवर्गदः ॥ "धर्म से अच्छे कुल में जन्म शरीर स्वस्थता, सौभाग्य, दीर्घआयु, बल, निर्मल यश, विद्या और धन-संपत्तियां मिलती हैं। धर्म भयंकर जंगल में रक्षा करता है और तो क्या मनुष्य-जन्म में भलीभांति आराधना किया हुआ धर्म स्वर्ग और अपवर्ग (मोक्ष) को देने वाला है।" ये जितनी भी उपलब्धियाँ हैं, वे सब लौकिक-लोकोत्तर सुख की प्रतीक हैं। परन्तु ये सब उपलब्धियाँ भी तभी प्राप्त हो सकती हैं, जब धर्म के प्रति अटल श्रद्धा हो, धर्माचरण को किसी भी मूल्य पर छोड़े नहीं । मनुस्मृति में स्पष्ट रूप से कहा गया है न सीदन्नपि धर्मेण मनोऽधर्म निवेशयेत् । अधार्मिकाणां पापानामाशु पश्यन् विपर्ययम् ॥ "अधर्म करने वाले पापियों को सुखी एवं धनी और धार्मिकों को दुःखी एवं निर्धन देखकर भी अधर्म में मन नहीं लगाना चाहिए।" परन्तु दुःख है कि आज अधिकांश लोग धर्माचरण करते-करते जब उन्हें मनोवांछित फल नहीं मिल पाता, तव झुंझलाकर धर्म को छोड़ बैठते हैं, वे अधर्म का आश्रय तो नहीं लेते, परन्तु धर्माचरण से विमुख हो जाते हैं, धर्मश्रद्धा से डिग जाते हैं। कई तो अधर्माचरण या पापाचरण के पथ पर भी चढ़ जाते हैं । धर्मश्रद्धा से च्युत होकर पाप या अधर्म के मार्ग पर एक बार चढ़ जाने के बाद पुनः धर्मश्रद्धा, धर्माचरण या धर्मश्रवण का अवसर मिलना बहुत कठिन होता है। इसीलिए उत्तराध्ययन सूत्र में धर्मसेवन की समग्रता के लिए श्रवण, श्रद्धा और आचरण की दुर्लभता का प्रतिपादन किया गया है-- 'उत्तम धम्म सुई हु दुल्लहा' 'सद्दहणा पुणरा विदुल्लहा।' 'दुल्लहया काएण फासणया।२ १. मनुस्मृति ४/१७१ २. उत्तराध्ययन १०/१८-१९-२० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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