Book Title: Anand Pravachan Part 12
Author(s): Anand Rushi, Shreechand Surana
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 360
________________ १००. धर्म सेवन से सर्वतोमुखी सुख प्राप्ति धर्म-प्रेमी बन्धुओ ! आज मैं गौतमकुलक के अन्तिम जीवनसूत्र पर आपके समक्ष प्रबचन करूंगा । धर्माचरण का फल क्या होगा ? इस सम्बन्ध में प्राचीनकाल से मनुष्य जिज्ञासा करता आया है । वह धर्म का सेवन - आचरण करता है, बहुत ही श्रद्धापूर्वक आचरण करता है, परन्तु भ्रान्तिवश जब अपना मनमाना सुख पाना चाहता है, तब वैसा सुख न मिलने पर उसका मन डाँवाडोल हो उठता है । जीवन के उस अन्धकार के दिनों में महर्षि गौतम एक महत्त्वपूर्ण अश्वासनात्मक जीवनसूत्र देते हैं 'धम्मं निसेवित्त सुहं लहंति' धर्म का सेवन - आचरण करके मनुष्य सुख प्राप्त करते हैं । गौतमकुलक का यह छयासीवां जीवनसूत्र है । धर्माचरण को सुख प्राप्ति का कारण बताने के बाद भी जिज्ञासु मानव के समक्ष यह प्रश्न बना रहता है कि धर्म जीवन में कैसे सुख प्राप्त कराता है ? धर्म का किस रूप में कैसे और किस प्रकार सेवन करना सुखावह एवं हितावह है ? आइए, इन सब प्रश्नों पर हम गम्भीरतापूर्वक विचार करें धर्म- सेवन के लिए धर्मदृष्टि धर्मसंस्कार आवश्यक मनुष्य जीवन में जैसे भोजन आवश्यक है, हवा-पानी भी आवश्यक है, वैसे ही मानव-जीवन के उच्चस्तरीय निर्माण के लिए धर्म की आवश्यकता होती है । भोजनादि से शरीर का निर्माण हो सकता है किन्तु जीवन-निर्माण के लिए धर्म की आवश्यकता है । मनुष्य के पास धन हो, सन्तान हो, स्त्री हो, अन्य सभी सुख के साधन हों, किन्तु धर्म के संस्कार न हों तो इन नाशवान वस्तुओं के वियोग, विनाश या विकृत होते ही मनुष्य घबरा जाएगा, दुःख का अनुभव करने लगेगा, सारा संसार उसे दुःखमय लगने लगेगा, सारी परिस्थितियाँ प्रतिकूल लगने लगेंगी । तात्पर्य यह है कि धर्मसंस्कार या धर्मदृष्टि जीवन में न हो तो व्यक्ति को सच्चा और स्थायी सुख नहीं मिलता । धर्मदृष्टि का मतलब है - प्रत्येक प्रवृत्ति में धर्म का विचार करना, धर्म-तत्त्व का चिन्तन करना । जिसके जीवन में धर्मदृष्टि आ जाती है, उसका जीवन धर्ममय हो जाता है । वह अर्थ और काम का सेवन भी करता है तो धर्म से युक्त हो, तभी करता है । वह. अपनी प्रत्येक प्रवृत्ति को धर्म की तराजू पर तौलता है, धर्म के गज से नापता है । जहाँ जिस प्रवृत्ति के पीछे धर्म का पुट न हो, धर्म जिस वचन, विचार और आचरण के साथ न हो, उसे धर्मनिष्ठ पुरुष कभी नहीं अपनाता । धर्मनिष्ठ मनुष्य चाहे गांव में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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