Book Title: Anand Pravachan Part 12
Author(s): Anand Rushi, Shreechand Surana
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 353
________________ ३२६ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ अनिवार्य ही हो तो एक बार ग्रहण कर ली जाए, परन्तु शरण ग्रहण कर लेने के बावजूद भी संकट, विपत्ति और दुःख आएँ तो उसे छोड़ देने में क्या हर्ज है ? दूसरी बात यह है कि आत्मा पर कष्ट या संकट आता है, या उसका विकास रुकता है-कर्मशत्रु ओं के कारण, अतः कर्मशत्रु ओं को नष्ट करने का ही पुरुषार्थ होना चाहिए, धर्मशरण ग्रहण करने की क्या आवश्यकता है ? प्रथम प्रश्न का उत्तर यह है कि धर्मशरण दृढ़विश्वास और प्रबल श्रद्धा के साथ ग्रहण करनी चाहिए। जो मनुष्य दृढ़तापूर्वक शरण ग्रहण नहीं करता है, बार-बार जिसका मन डांवा-डोल हो जाता है, वह व्यक्ति धर्मशरण से लाभ नहीं उठा सकता । पतिव्रता नारी एक बार जिस पति को हृदय से स्वीकार कर लेती है, जिसकी शरण ग्रहण कर लेती है, वह फिर आजीवन उसे नहीं छोड़ती, न ही उसका मन छोड़ने के लिए उतावला होता है। इसी प्रकार लौकिक व्यवहार में देखा जाता है, जो व्यक्ति एक बार किसी समर्थ पुरुष की शरण में चला जाता है, फिर उसे जिंदगीभर नहीं छोड़ता; तब फिर महाशक्तिमान् सर्वसमर्थ व्यापक शुद्ध धर्म की शरण एक बार ग्रहण करने पर छोड़ देना कैसे हितावह हो सकता है ? दूसरे प्रश्न के उत्तर में यह कहा जा सकता है कि यह निश्चित है कि कर्मों के भोगे बिना कर्मों का नाश नहीं हो सकता, किन्तु कर्म भोगने के दो तरीके हैं-उदय के मार्ग से और क्षय के मार्ग से । धर्म की शरण लेने पर भी कर्म तो भोगने ही पड़ते हैं, किन्तु भोगे जाते हैं-क्षय के मार्ग से, उदय के मार्ग से नहीं। उदयमार्ग की अपेक्षा क्षयमार्ग शॉर्टकट है, छोटा है । अतः धर्म की शरण लेने से पूर्वकर्मों का नाश और साथ ही नवीन कर्मों का निरोध, ये दोनों कार्य साथ-साथ होते हैं, इस कारण शीघ्र कर्मों का क्षय हो सकता है। वैद्य वही अच्छा होता है, जो रोगी के पुराने रोग को मिटाता है और नये आते हुए रोग को रोक देता है, इसी प्रकार धर्मरूपी वैद्य की शरण लेने से पुराने कर्मरोग मिटते हैं और नये आने वाले कर्मरोग रुकते हैं। धर्म की शरण अनन्यभाव से लेने पर आत्मा के कर्मरोग मिट जाते हैं । अतः पूर्णरूप से आध्यात्मिक रोग मिटाना हो तो धर्मरूपी वैद्य की शरण ग्रहण करना अनिवार्य है। धर्म की शरण एक बार स्वीकार कर लेने पर फिर चित्त को डांवाडोल करना अच्छा नहीं है । क्योंकि शरणग्रहण का अर्थ है-समर्पण करना, Surrender करना, 'अप्पाणं वोसिरामि' करना । जब एक बार व्यक्ति ने अपने समस्त विषय-कषाय आदि विकारों के हथियार डाल दिये, धम क समक्ष समर्पित कर दिया, तब कोई संकट या विघ्नबाधा उपस्थित होने पर धर्म की शरण का त्याग देना उचित नहीं है । बड़े ही पुण्ययोग से धर्म की शरण मिली, उससे सभी उत्तमोत्तम संयोग मिले, किन्तु जरा-सी कोई मनोकामना पूर्ण नहीं हुई, अपना मनचाहा न हुआ तो धर्म को छोड़ बैठना बुद्धिमानी नहीं है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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