Book Title: Anand Pravachan Part 12
Author(s): Anand Rushi, Shreechand Surana
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 349
________________ ३२२ : आनन्द प्रवचन भाग : १२ से बद्ध होने के फलस्वरूप इन दुःखों को पाकर अनाथ हो जाता है। अतः दुःखों के मूल कारण-कर्मों को मिटाने का सर्वोत्तम उपाय धर्म है, धर्माचरण है । धर्म ही समस्त दुःखों से मुक्त कर सकता है, बशर्ते कि मनुष्य श्रद्धापूर्वक उसकी शरण ग्रहण करके अपने जीवन को धर्म से ओतप्रोत कर ले ।' बस, इसी चिन्तन के फलस्वरूप मैंने संकल्प कर लिया- 'अगर मैं इस दारुण वेदना से-दुःख से मुक्त हो गया तो क्षान्त, दान्त एवं निरारम्भ होकर अनगारधर्म की शरण ग्रहण करूंगा।' इस प्रकार चिन्तन करते-करते मैं सो गया। रात्रि व्यतीत हुई। प्रातःकाल देखता हूँ-धर्म शरण का चमत्कार कि मेरी सारी वेदना नष्ट हो गई । मैं बिलकुल स्वस्थ हो गया। बस, मैंने अपने पारिवारिक जनों के समक्ष अनगार धर्म में प्रवजित होने का अपना संकल्प बताया । पहले तो सब आनाकानी करने लगे । फिर मेरी दृढ़ता देखकर सबने प्रसन्नतापूर्वक मुझे अनगारधर्म में दीक्षित होने की अनुमति दे दी। राजन् ! उसी दिन से मैं अनगार धर्मशरण लेकर अनाथ से सनाथ बना । मैं अपना और दूसरों का नाथ बना, संसार के समस्त त्रस-स्थावर प्राणियों का भी नाथ बना।' __ इस प्रकार अनाथी मुनि ने दृढ़तापूर्वक धर्म की गोद में अपने आपको बिठाकर धर्मांशरण ली, उसका प्रत्यक्ष चमत्कार तो उन्होंने देख ही लिया, अनगारधर्म में दीक्षित होते ही सर्वांगपूर्ण आध्यात्मिक विकास करके उभयलौकिक जीवन सार्थक कर लिया। धम्म सरणं पवज्जामि : क्यों और किसलिए ? __ इसीलिए महाभारत में धर्म-शरण का महत्त्व बताते हुए कहा गया है-"धर्म ही सत्पुरुषों का हित है, धर्म ही सत्पुरुषों का आश्रय है, और चर-अचर तीनों लोक धर्म से ही चलते हैं। सभी धर्मशास्त्र एक स्वर से धर्म का महत्त्व मानते हैं। धर्मविहीन मनुष्य को पशु बतलाया है। जंगल में घूमने वाले पशुओं और ऐसे धर्मविहीन मनुष्यों में कोई अन्तर नहीं होता। इसलिए मानना होगा कि धर्म की शरण लेने से मनुष्य में मनुष्यत्व का विकास होता है । धर्म की शरण ले लेने और उस पर दृढ़ रहने से इहलोक में मनुष्य का सर्वतोमुखी विकास होता ही है, परलोक में भी धर्म ही साथ जाता है । मृत्यु सिरहाने खड़ी हो, उस समय धर्म की ही शरण ली जाती है। स्त्री, पुत्र, माता, पिता, परिवार, जाति आदि के लोग कोई भी न परलोक में साथ जाता है, और न ही इहलोक में मृत्यु, रोग आदि के संकट में कोई सहायता दे सकता है। किन्तु यहाँ धर्म की ली हुई शरण परलोक में मी मनुष्य को सहायता देती है। इसीलिए बौद्धधर्म में धम्मं शरणं गच्छामि का उद्घोष प्रत्येक धर्मसाधक करता है, वैसे ही जैनधर्म में 'धम्म सरणं पवज्जामि' (धर्म की शरण स्वीकार करता हूँ) का उद्घोष करता है। उसका कारण यह है कि धर्म की शरण स्वीकार करने से रोग, शोक, दुःख, संकट और विपत्ति के समय मनुष्य को धर्म का ही विचार आए, धर्म का ही चिन्तन चले । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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