Book Title: Anand Pravachan Part 12
Author(s): Anand Rushi, Shreechand Surana
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 328
________________ धर्म : जीवन का त्राता : ३०१ से अपने आप को सुख पहुँचाना मानता है । इसी तरह समाज के पीड़ित, पददलित एवं दुर्बल वर्ग को समुन्नत करने, विकसित करने के लिए उन्नत एवं विकसित वर्ग के लोग अपना धर्म समझकर प्रयास करते हैं । समाज या राष्ट्र पर या इसके किसी वर्ग पर कोई प्राकृतिक प्रकोप - भूकम्प, बाढ़, सूखा, महारोग आदि का उपद्रव आ पड़ता है तो दूसरे वर्ग के लोग अपनी धर्मभावना से प्रेरित होकर ही उसके निवारणार्थं भरसक प्रयत्न करते हैं । राष्ट्र या समाज के किसी भी वर्ग के भाइयों पर कष्ट आ पड़ने पर कष्ट निवारणार्थ त्याग, बलिदान या सर्वस्व होमने को भी मनुष्य धर्मप्रेरणावश तत्पर होता है । इन सब दृष्टियों से धर्म एक या दूसरे रूप में व्यक्ति, समाज और समष्टि की— शास्त्रीय शब्दों में प्रजा एवं समाज की रक्षा करता है । इस प्रकार धर्म वैयक्तिक एवं सामाजिक दोनों जीवनों की रक्षा करता है । धर्म से व्यक्तिगत जीवन की रक्षा का एक ऐतिहासिक उदाहरण लीजिए । राजा विक्रमादित्य धर्मनिष्ठ एवं प्रजावत्सल नरेश था । एक बार राजा विक्रमादित्य ने घोषणा की - "मेरे नगर में आये हुए किसी भी व्यापारी का माल नहीं fair at food - बिकते बच जाएगा तो उसे मैं खरीद लिया करूंगा और राजकोष से उसका यथोचित मूल्य चुका दिया जाएगा ।" राजा इस धर्म से प्रेरित था कि 'प्रजा का धन प्रजा की भलाई के कार्यों में ही लगना चाहिए।' राजा के इस प्रण का समाचार देवलोक तक पहुँच गया । कहते हैं, एक देवता ने राजा की परीक्षा लेने के विचार से व्यापारी का रूप बनाया और फटे-पुराने कपड़ों का एक पुतला बनाकर बाजार में बैठ गया । उसे देखकर लोग पूछने लगे--- "आप क्या माल लाये हैं ?" व्यापारी (पुतला दिखाते हुए) बोला - "देखो, यह माल है, इसे 'दरिद्रता का पुतला' कहते हैं ।" लोग - " इसमें क्या गुण है ?" व्यापारी - "इसका सबसे बड़ा गुण यह है कि यह जिसके घर में जाएगा, उसकी लक्ष्मी भाग जाएगी ।" लोग - " इसकी कीमत क्या है ?" व्यापारी - " सवा लाख रुपये ।" जो भी इस व्यापारी की बात सुनता, भौंचक्का-सा रह जाता ; फिर हँसता और तालियाँ पीटता हुआ चला जाता । तीसरा पहर हो चुका, लेकिन इस अनोखे व्यापारी का वह पुतला नहीं बिका। राजा विक्रमादित्य व्यापारियों के बचे हुए माल को खरीदने के लिए बाजार में आए और पूछने लगे – “किसका माल बिकने से बचा है ?" यह सुनकर वह व्यापारी राजा के पास पहुँचा और बोला - " अन्नदाता ! मेरा माल अभी तक नहीं बिका ।" उसने राजा को पुतला बतलाकर उसके गुणों का भी वर्णन किया । व्यापारी का कथन सुनकर राजा विचारमग्न हो गए, सोचा - 'यदि मैं वचन - पालन करके अपने धर्म की रक्षा करता हूँ, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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