Book Title: Anand Pravachan Part 12
Author(s): Anand Rushi, Shreechand Surana
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 341
________________ ६६. धर्म ही शरण और गति है धर्मप्रेमी बन्धुओ ! आज मैं आपके समक्ष एक आश्वासनदायक और प्रेरणादाता जीवनसूत्र पर विवेचन करने जा रहा हूँ। यह एक प्रकार का विवेकसूत्र है, जिस पर विचार न करने से मनुष्य अपने जीवन के प्रवाह को उलटी दिशा में बहा ले जा सकता है, वह भटक सकता है, उसका जीवन विमूढ़ताओं का शिकार हो सकता है। इसी हार्दिक अनुकम्पा से प्रेरित होकर महर्षि गौतम ने यह जीवनसूत्र प्रस्तुत क्रिया धम्मो ...""सरणं गई य "धर्म ही शरण है और गति है । अर्थात्-धर्म ही शरण लेने योग्य है, और वही गति-प्रगतियों में सहायक हैं।" गौतमकुलक का यह पच्चासीवाँ जीवन सूत्र है। धर्म ही क्यों शरणदाता है और गतिप्रदाता है ? संसार के अन्य पदार्थ क्यों नहीं ? धर्म किस प्रकार और किसको शरण देता है ? उसकी शरण में जाने से क्या-क्या लाभ हैं ? ये और इनसे सम्बन्धित प्रश्नों पर विचार किये बिना इस जीवनसूत्र का आशय समझ में नहीं आ सकेगा । इसलिए मैं आपके समक्ष विविध पहलुओं पर चिन्तन प्रस्तुत करने का प्रयत्न करूंगा। धर्म की ही शरण क्यों ? मनुष्य के जीवन में कई बार भयंकर एवं विपरीत परिस्थितियाँ आ जाती हैं, मनुष्य का मन उस समय डांवाडोल हो उठता है, और वह कोई न कोई आश्रय या शरण ढूढता है । वह सोचता है, ऐसी जगह या वस्तु का आश्रय लिया जाए, जिसका आश्रय एक बार लेने पर छूटे नहीं, या वह उस मनुष्य को छोड़े नहीं, उसकी गोद में बैठ जाने पर फिर उसे कहीं न जाना पड़े। साथ ही शरण देने वाला इतना शक्तिशाली समर्थ और सर्वतोमुखी व्यापक हो कि कष्ट या संकट आने पर या उसके प्रति सामान्य बुद्धि लोगों की ओर से तानाकशी की जाए, बदनामी हो, फिर भी वह जिसको एक बार शरण दे चुका, उसे छोड़े नहीं। दूसरे शब्दों में, वह शरणागत व्यक्ति की हर तरह से रक्षा करे, उसका सर्वांगीण विकास करे, उसे बन्धनमुक्त होने की प्रेरणा दे । ऐसा शरण्य या शरणदाता इस विश्व में धर्म के सिवाय और कोई नहीं हो सकता । शरीर ऐसा शरणदाता नहीं हो सकता, क्योंकि शरीर नाशवान है, वह स्वयं आत्माश्रित है । आत्मा के दूसरी गति में जाते ही शरीर यहीं रह जाता है, नष्ट हो जाता है। माता-पिता भाई-बहन या अन्य सगे-सम्बन्धी अथवा मित्र आदि शरण देने में असमर्थ होते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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