Book Title: Anand Pravachan Part 12
Author(s): Anand Rushi, Shreechand Surana
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 336
________________ धर्म : जीवन का त्राता : ३०९ अहिंसा से सारी समस्याएँ आसानी से हल हो जाती है । ब्रह्मचर्य से शरीर, इन्द्रियाँ और मन बलवान, स्वस्थ और सुन्दर बनते हैं। सत्य से बड़े-से-बड़े अत्याचारी, अन्यायी एवं पापी को झुकाया जा सकता है, मनुष्य निर्भय होकर दूसरों पर प्रभाव डाल सकता है । ईमानदारी से व्यावहारिक, धार्मिक और आर्थिक सभी लाभ हैं। इसी प्रकार क्षमा, दया, परोपकार, सेवा, सन्तोष, तितिक्षा आदि के प्रत्यक्ष लाभ विदित हैं। धर्म के इन अंगों से होने वाले प्रत्यक्ष लाभों की आकर्षण शक्ति ने ही मनुष्य को धर्म के साथ बांध रखा है, अन्यथा स्वार्थी मनुष्य कभी का धर्म को धता बता चुका होता । इसीलिए एक सहृदय अनुभवो कवि ने धर्म पर दृढ़ श्रद्धा रखने की सलाह दी है रखना तुम मन में दृढ़ श्रद्धा यह धर्म बचाने वाला है। कष्टों को दूर हटा सुखमय यह सृष्टि रचाने वाला है ॥ध्रव।। इस धर्म की महिमा भारी है, यह अनुपम ताकत धारी है। जन-जन की डूबती नैया को, यह पार लगाने वाला है ॥रखना""१॥ शूली का सिंहासन करता है, विष को अमृतमय करता है। बस अग्निकुण्ड धगधगते को, यह नीर बनाने वाला है ॥रखना""२।। हर आफत को नर तर जाता है, भूला-भटका रास्ता पाता। सब ताप मिटा करके मन का, यह शान्ति बढ़ाने वाला है ॥रखना""३॥ सचमुच कितनी ही विपत्तियाँ आने पर भी जो धर्म को नहीं छोड़ता, धर्म उसकी अवश्यमेव रक्षा करता है। चम्पानगरी के सेठ सुदर्शन के सामने कितने भय और प्रलोभन आये शील से भ्रष्ट करने के, यहां तक कि उन पर झूठा इलजाम लगाकर शूली का दण्ड भी दिया गया था, लेकिन शील में दृढ़ सेठ सुदर्शन की शीलधर्म ने रक्षा की, शूली का सिंहासन बन गया। सारे नगर में उनकी प्रतिष्ठा में चार चाँद लग गये । इसी प्रकार सीता को धधकते अग्निकुण्ड में पड़कर अपने सतीत्व की परीक्षा देने के लिए कहा गया था। सीताजी ने ज्यों ही अग्निकुण्ड में प्रवेश किया, अग्नि के बदले वहाँ पानी हो गया। सीताजी ने अपना शीलधर्म नहीं छोड़ा, इसी के फलस्वरूप धर्म ने सीताजी की रक्षा की। भारतीय इतिहास में ऐसे सैकड़ों उदाहरण मिलते हैं, जिन्होंने अपने ऊपर अनेक संकट आने पर भी धर्म पर दृढ़ता रखी, उसी के फलस्वरूप धर्म ने उनकी रक्षा की, उनकी प्रतिष्ठा बढ़ाई । उनका नाम संसार में अमर हो गया। जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज को एक दिन एक स्वप्न आया, जिसका उल्लेख उन्होंने अपने प्रवचन में किया है, वह इस प्रकार है-वे एक वन में से होकर जा रहे थे, तभी एक अप्सरा-सी रूपवती एक महिला को देखा । उसके शरीर पर एक भी आभूषण नहीं था, किन्तु अंग-अंग से स्वाभाविक रूप से सौन्दर्य फूट रहा था। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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