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परस्त्री-आसक्ति से सर्वनाम : १८५
यह भी बताया कि आपके कल वाले प्रश्न 'काम का जनक कौन है ?' का उत्तर'एकान्तवास' है, इसे समझाने के लिए मैंने ही यह आयोजन किया था। कालीदास तुरन्त समझ गये कि काम का बाप-जनक एकान्तवास है। पिता-पुत्री या बहनभाई का भी एकान्तवास जब उचित नहीं है। तब अन्य स्त्री के पास पुरुष का एकान्तवास कितना अनिष्टकर हो सकता है ? यह इसी से समझा जा सकता है। स्त्री-पुरुष का एकान्तवास ही परस्त्रीसेवन के लिए खतरे की घंटी है।
१०. सहशिक्षण, सहभ्रमणादि-आजकल हाईस्कूलों एवं कॉलेजों में प्रायः लड़के-लड़कियों का सहशिक्षण भी परस्त्रीगमन का एक कारण है। लड़के-लड़की अबोध अवस्था में साथ-साथ पढ़ते हैं और अपने-अपने मित्र भी बनाते हैं। प्रेमपत्र, सहभ्रमण, सैरसपाटा, सिनेमा, क्लब आदि में साथ-साथ गमन, इत्यादि कामवासनामूलक परस्त्री-सेवन के पाप का प्रारम्भ हो जाता है। लड़के कच्ची उम्र में ही अपनी मनोनीत प्रेमिका के साथ भ्रष्ट हो जाते हैं। साथ ही अपने जीवन का इस तरह सर्वनाश कर बैठते हैं । जब तक वे वयस्क होते हैं तब तक तो परस्त्री में आसक्त और उसके सेवन के अभ्यस्त हो जाते हैं । मानना होगा कि वर्तमान युग का सहशिक्षण परस्त्री-सेवन का जबर्दस्त कारण है।
__ इसके अतिरिक्त मेलो-ठेलों, बाग-बगीचों, क्लबों तथा समय-असमय में होने वाले प्रीतिभोजों आदि में भी सावधानी न रखी जाए तो अज्ञात, अपरिचित नरनारियों का इनमें सहभ्रमण, नाच-रंग में साथ-साथ शरीक होना, खेल-कूद में भी स्त्री पुरुषों का साथ-साथ रहना तथा स्वच्छन्द होकर साथ-साथ घूमना भी परस्त्रीगमनरूप पाप को न्यौता दे सकता है । और प्रायः देखा जाता है कि ऐसे स्थलों में एक बार जाने के बाद स्त्री-पुरुषों को उसकी चाट लग जाती है फिर पतन होते क्या देर लगती है।
विदेशों में स्त्री-पुरुषों के स्वच्छन्द सहभ्रमण आदि पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है, परन्तु भारत में इसे नैतिक दृष्टि से अनुचित माना जाता है। विवाह होने से पूर्व वाग्दत्त स्त्री-पुरुष का भी सहभ्रमण, प्रेम-पत्र-लेखन आदि नैतिक दृष्टि से अनुचित माने जाते हैं । पति-पत्नी हो जाने के बाद सहभ्रमण की छूट दी गई है। आज का सभ्य समाज सहशिक्षण, सहभ्रमण आदि के दुष्परिणामों को जानता-बूझता हुआ भी इसे गले का हार बनाये हुए है। कबीर जैसे महात्माओं ने आज से कई शताब्दी पूर्व इसके दुष्परिणाम स्पष्ट बताये हैं
नारी की झाई परत, अन्धा होत भुजंग। कबिरा तिन की कौन गति, नित नारी के संग ।।
१. "मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा न विवक्तासनो भवेत् ॥
बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति ॥"
-मनुस्मतिअ० २
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