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सुखोपभोगी के लिए इच्छानिरोध दुष्कर : २३५
दो घंटे तक धन की चाबी घुमाई पर सुखमन्दिर का ताला न खुला । उसने सोचा शायद वैभव की चाबी से सुखमन्दिर का ताला खुले । क्योंकि धन तो नष्ट हो जाता है, पर मकान, वस्त्रादि तथा अन्य ठाट-बाट रहते हैं, अतः सुख की चाबी 'वैभव' हो, उसने वैभव की चाबी उठाई और ताला खोलने लगा, पर दो घंटे तक मेहनत करने के बाबजूद भी उससे ताला न खुला । उसने दूसरी चाबियाँ देखीं, तो एक चाबी पर लिखा था-यश-कीति । उसने सोचा-मनुष्य के पास धन व वैभव तो नष्ट हो जाता है, लेकिन यश-कीर्ति तो चिरस्थायी रहती है, शायद इससे सुख मन्दिर का ताला खुल जाए। अतः उसने यश-कीर्ति वाली चाबी उठाकर घुमाई । तीन घंटे वह उस चाबी को इधर से उधर घुमाता रहा, मगर सुखमन्दिर का ताला न खुला। उसके मस्तिष्क में विचार स्फुरित हुआ कि यह भी सुख की चाबी नहीं है । 'महत्वाकांक्षा' ही सुख की चाबी है, क्योंकि महत्वाकांक्षाओं, बड़ी-बड़ी आकांक्षाओं एवं इच्छाओं से मन को तृप्ति होती है । अतः उसने वही चाबी उठाई और घुमाने लगा। लगातार तीन घंटे तक बहुत प्रयत्न किया मगर सुखमन्दिर का ताला खोलने में सफलता न मिली। फिर उसने उसने, 'पद-प्रतिष्ठा' वाली चाबी उठाई और लगातार दो घंटे तक उसे घुमाता रहा, मगर सफलता न मिली, सुखमन्दिर का ताला खोलने में, बारह घंटों में से सिर्फ ४-५ मिनट बाकी रहे, वह घबराया। तभी उसे एक अन्तिम चाबी दिखाई दी, जिस पर लिखा था-'सद्धर्माचरण' । सोचा–सद्धर्म का आचरण करने वाले प्रत्यक्ष सुखी तो दिखाई नहीं देते, उनके पास न तो पूरे वस्त्र रहते हैं, न बढ़िया खाने-पीने की वस्तुएँ होती हैं, वे तो सादगी और गरीबी में जीवन व्यतीत करते हैं, इनमें क्या सुख होता होगा? फिर भी उसे यह विश्वास था कि महात्मा ने उसे चाबियां दी हैं, तो इनमें से जरूर एक चाबी तो लगनी ही चाहिए । अतः उसने वह 'सद्धर्माचरण' की अन्तिम चाबी लगाई, उससे ताला तो खुल गया, पर सुखमन्दिर के द्वार न खुल सके, क्योंकि समय पूरा हो चुका था । अतः सुखमन्दिर की झांकी होते-होते रह गई । सुख उसे मिल न सका।
यह एक रूपक है। इस पर से समझना चाहिए कि मनुष्य सुख-प्राप्ति के लिए जिन्दगी भर दौड़-धूप करता है, वह धन, वैभव, यश-कीर्ति, महत्वाकांक्षा और पद-प्रतिष्ठा आदि सम्पदाओं की चाबियां लगाता रहता है, परन्तु सुखमन्दिर का असली द्वार नहीं खुलता । १२ घण्टे के समान अधिक से अधिक १२० वर्ष की जिन्दगी है। अन्तिम समय में जब थोड़े-से मिनट रह जाते हैं, तब उसे सूझता है कि अब धर्माचरण कर लें, ताकि यहाँ जो सुख नहीं मिला, वह अगले जन्म में मिल जाएगा। परन्तु उस ४-५ मिनट की धमा-चौकड़ी में वह कुछ भी धर्माचरण नहीं कर पाता। कदाचित् २-४ घण्टे भी मिल जाएं, तब भी बुढ़ापे में शरीर और मन दोनों हारे-थके, जीर्ण-शीर्ण हो जाते हैं, अतः धर्माचरण में मन कहां लगता है ?
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