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२८८ : आनन्द प्रवचन : भाग १२
इससे भी आगे बढ़कर जैनधर्म ने ११४१ व्यक्तियों की हत्या करने वाले अर्जुन मालाकार को मुनिसंघ में स्थान दिया । भगवान महावीर से अर्जुन मुनि ने क्षमा की अद्भुत व कठोर साधना सीखी और क्षमाधर्म के अटल पुरुषार्थ से छह महीनों में अपने समस्त कर्मों का क्षय करके सिद्ध-बुद्ध-मुक्त बने ।
जैनधर्म के इतिहास में ऐसे अनेकों उदाहरण मिलते हैं। धर्मानुरूप समस्त लौकिक विधियों का स्वीकार
जैनशास्त्रों में मूल में विवाह आदि की लौकिक विधियों का उल्लेख नहीं है। केवल विवाहों का तथा कुछ कथाओं में वर-कन्या की योग्यता तथा प्रीतिदान का उल्लेख अवश्य है । जब जैनाचार्यों के समक्ष यह प्रश्न आया कि कौन-सी लौकिक विधि मानी जाए और कौन-सी नहीं ? तब उन्होंने यह निर्णय दिया
सर्व एव हि जैनानां प्रमाणं लौकिको विधि । - यत्र सम्यक्त्व हानिन, न स्याद् व्रतदूषणाम् ॥
जैनों के लिए सभी लौकिक विधियां प्रमाण हैं, स्वीकार्य हैं, बशर्ते कि उनके स्वीकार करने पर सम्यक्त्व नष्ट न हो, तथा व्रतों में कोई दोष (अतिचार) न लगता हो । सचमुच जैनधर्मानुयायियों ने विवाह आदि की बहुत-सी लौकिक विधियाँ मान्य की हैं, तो बहुत-से रीतिरिवाजों में संशोधन-परिवर्तन किया है।
एक-दो उदाहरणों द्वारा मैं इसे स्पष्ट कर दू
गोभिल्लगृह्यसूत्र में उल्लेख है कि वर-वधू जब विवाहमंडप में बैठते थे, तब ताजे बैल को मारकर उसका लाल चमड़ा उन्हें ओढ़ाया जाता था; यह एक बीभत्स प्रथा थी, इसके पीछे भयंकर हिंसा थी । जैनों ने इस विधि को हिंसक होने के कारण अमान्य कर दिया और इसके बदले वर-वधू को लाल (शालू का) कपड़ा ओढ़ाने की विधि प्रचलित की। विवाह आदि मांगलिक प्रसंगों पर लोग मनुष्य की खोपड़ी लेकर चलते थे, जिसे मांगलिक माना जाता था । परन्तु जैनों ने खोपड़ी जैसी घिनौनी और अमांगलिक वस्तु के बदले श्रीफल (नारियल) लेकर चलने का रिवाज अपनाया। मृतक के पोछे श्राद्धप्रथा का जिक्र चला तो जैनों ने कहा-'इससे हमारे सम्यक्त्व में बाधा आती है । जैन लोग वैसे ब्राह्मणों को खिला सकते हैं, परन्तु उनकी यह मान्यता नहीं है कि यहाँ ब्राह्मणों को भरपेट खिलाने से वह भोजन उनके पितरों (मृत पुरुषों) को परलोक में मिल जाता है । ब्राह्मणों के पेट से मृतकों के पेट का ऐसा कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं है कि उन्हें वह भोजन वहाँ मिल सके।" अतः सैद्धान्तिक विरोध होने के कारण जैनों ने श्राद्धप्रथा सम्यक्त्वबाधक होने से अमान्य कर दी । जो प्रथाएँ धर्मानुकूल एवं व्रत-सम्यक्त्वानुकूल थीं, उन सबको जैनधर्म के अनुगामी गृहस्थों ने मान्य कर लिया।
समस्त आत्म-साधनाओं में समन्वय-विविध धर्मों की आध्यात्मिक
१. यशस्तिलक चम्पू-सोमदेव सूरि
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