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२६२ : आनन्द प्रवचन : भाग १२
है। धर्म के सभी तत्त्वों को अपने दैनिक व्यवहार में ओतप्रोत करना ही तो धर्म है । धर्म के बड़े-बड़े सिद्धान्त हम चाहे जितने जान लें, अगर वे आचरण में जरा भी नहीं आते, तो उनको जानने का कोई अर्थ नहीं है । चोरी न करना, असत्य न बोलना, दूसरों को दुःख न देना, इत्यादि सब धर्म के मूल सिद्धान्त हैं, इन्हें आचरण में लाना ही धर्म का रहस्य है। चोरी न करना-अर्थात्-किसी भी मूल्य पर चोरी नहीं करना। वस्तु की चोरी तो चोरी है ही, किसी से कोई बात छिपाना भी भाव-चोरी है । श्रम से जी चुराना भी चोरी है। इसी तरह असत्य बोलना पाप है। परन्तु जीवन में सत्य बात जाहिर करते समय चुप रहना भी असत्य है, पाप है। इस प्रकार जीवन में कदम-कदम पर धर्म रहा हुआ है । प्रत्येक कार्य, विचार और व्यवहार में धर्म रहा हुआ है। इन सब का हमें पालन करना है। सबके साथ मैत्री और आत्मीयता भरा व्यवहार करना भी धर्म है। धर्म में इन सब बातों का समावेश हो जाता है। धर्म की कोरी डींगें हाँकते रहें मगर धर्म का जीवन में बिन्दु भी न हो या दैनिक कार्यों में अधर्म भरा हो तो समझना चाहिए वह धर्म से रिक्त है।"
ताओ-बू का वचन सुनकर शिष्य चुगसिन धर्म का रहस्य समझ गया।
जैनधर्म स्पष्ट कहता है-लोगों के सामने तुम अपने धर्म की बड़ी-बड़ी बातें करते रहो, उच्च सिद्धान्त बताते रहो, परन्तु तुम्हारे जीवन में वे सिद्धान्त या वे बातें न हों तो उससे तुम्हारा धर्म महान् नहीं कहला सकता । कवि अपनी अन्तर्व्यथा इस सन्दर्भ में प्रकट करता है
धर्म के भिन्न न होते छोर। कहने में कुछ और, क्रिया में परिणत होता कुछ और ॥ध्र व।। सुखप्रद वही धर्म कहलाता, जो पाचरणों में आ जाता । विमल विवेचन शास्त्रों का जब चलता अपनी ओर ॥धर्म ॥१॥ तरह-तरह से स्वादू खाने, हलवाई की सजी दुकानें। भरता पेट तभी जब भूखा, लेता मुंह में कौर ॥धर्म"॥२॥ सच्चे देव धर्म है सच्चा, उदाहरण अच्छे से अच्छा । खुद हो कितने अच्छे ? इस पर कर लेना कुछ गौर ।।धर्म ॥३॥
सचमुच कवि ने मर्म की बात कह दी है । धर्म जब तक आचरण में नहीं आता तब तक वह अनुभूत नहीं कहलाता। इसीलिए उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है
_ 'धम्मं चर सुदुच्चर' "धर्म चाहे आचरण में कठिन लगता हो, परन्तु शुभ परिणाम लाने वाला है, इसलिए उसका आचरण करो।" धर्म का आचरण ही सुफल लाता है
धर्म का आचरण करने से ही मनुष्य सुख-शान्ति और समृद्धि प्राप्त करता है,
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