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२६८ : आनन्द प्रवचन : भाग १२
हैं। वे कभी तो परिवार की, कभी समाज की और कभी राष्ट्र की परिस्थिति का बहाना बना कर कहते हैं-“वर्तमान युग में वास्तविक धर्म का पालन नहीं हो सकता।" कहने को कहा जाता है कि भारत धर्मप्रधान देश है, किन्तु यहाँ के लोग ग्रामधर्म, नगरधर्म, राष्ट्रधर्म आदि में भी दूसरे देशों की अपेक्षा बहुत पिछड़े हुए हैं, जबकि जिन देशों में धर्म का सूक्ष्म विचार एवं दर्शन भारत के जितना नहीं है, उन देशों का नागरिक एवं राष्ट्रीय चरित्र भारत की अपेक्षा बहुत उन्नत देखा जाता है।
पश्चिम के कई देशों में तो मिलावट, झूठा तौल-माप, रिश्वत आदि बातें देखने को ही नहीं मिलती। यहाँ इन सब अनैतिकताओं का बाजार गर्म है । यों देखा जाए तो धर्म का बाह्य रूप यहाँ प्राचीनकाल से अधिक मालूम होगा। यहाँ मन्दिर, मस्जिद, स्थानक, उपाश्रय, गुरुद्वारे, गिर्जाघर आदि पहले से अधिक हैं। धर्मगुरु और धर्माचार्य भी बढ़े हैं, कोटि-कोटि लोग विश्वासपूर्वक अपने-अपने देवी-देवों, धर्मगुरुओं आदि की उपासना करते हैं, एकादशी आदि व्रत रखते हैं, रोजा रखते हैं, नमाज पढ़ते हैं, सामायिक-प्रतिक्रमण करते हैं, बाह्यतप भी करते हैं, पूजा-पाठ, उपासना आदि करते हैं। कहना होगा कि धर्म का बाह्यरूप प्रखर है, तेजी से बढ़ रहा है, परन्तु धर्म के अन्तरंगरूप का ह्रास होता जा रहा है । अहिंसा, सत्य, न्याय-नीति, प्रामाणिकता, ब्रह्मचर्य आदि अन्तरंगधर्म आचरण में जितना चाहिए उतना नहीं है। इसी कारण आज भारत में दुःखों और संकटों के बादल छा रहे हैं । चोरी, डकैती, लूटमार, हत्या, हिंसा, अप्रामाणिकता, बलात्कार, व्यभिचार, आगजनी, तोड़-फोड़ आदि के समाचार आए दिन अखबारों में छपते हैं। कोरे बाह्य धर्म से जीवन की रक्षा नहीं हो सकती। चारों ओर जहाँ देखें वहीं, अव्यवस्था और अराजकता बढ़ती जा रही है। केवल मन्दिरों, धर्मस्थानकों आदि तथा धार्मिक क्रियाकाण्डों के बढ़ने से धर्म थोड़े ही बढ़ जाता है । वास्तव में बाह्यधर्म तो अन्तरंगधर्मरूप माल की रक्षा के लिए पेटी, बोरी या टीन के रूप में है । उससे अन्तरंगधर्म का कार्य नहीं हो सकता । कोरे धर्म के उपदेशों से सामाजिक जीवन बदला नहीं जा सकता, हजार में से दो चार का व्यक्तिगत परिवर्तन भले ही हो जाए । इसलिए याद रखिए, जब तक अहिंसा, सत्य आदि धर्म के अन्तरंग रूप का पालन नहीं होगा, तब तक पारिवारिक, सामाजिक या राष्ट्रीय जीवन की, तथा व्यक्तिगत जीवन की भी सुरक्षा नहीं हो सकेगी। जीवन के दोनों रूपों में धर्म से सुरक्षा
जीवन के दो रूप होते हैं—एक वैयक्तिक और दूसरा सामाजिक । सामाजिक जीवन में परिवारगत, जाति-समाजगत, एवं राष्ट्रगत सभी जीवन आ जाते हैं । वैयक्तिक जीवन में धर्म तब आता है, जब व्यक्ति अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ईमानदारी, ब्रह्मचर्य, परिग्रहमर्यादा या अपरिग्रहवृत्ति, सेवा, क्षमा, दया, संयम आदि गुणों को जीवन में अंगीकृत करके आचरण करता है, तो उसे स्वयं सुख-शान्ति की अनुभूति होती है, कदाचित पूर्व-कर्मोदयवश कोई कष्ट या संकट आता है तो भी वह समभाव, धैर्य एवं शान्तिपूर्वक
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