Book Title: Anand Pravachan Part 12
Author(s): Anand Rushi, Shreechand Surana
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 318
________________ जिनोपदिष्ट धर्म का सम्यक् आचरण : २६१ किसी भी रोगी को अगर रोग मिटाना है तो उसे दवा खानी पड़ती है। परन्तु अगर दवा का नाम लेकर ही रोग मिटाना चाहे तो क्या वह मिट सकता है ? कदापि नहीं । इसी प्रकार केवल अहिंसा, सत्य आदि धर्मांगों का नाम ले लेने मात्र से भवभ्रमण का रोग नहीं मिट सकता । वह रोग तो तभी मिटेगा, जब कि उस पर आचरण किया जाएगा । जैसे कि उत्तराध्ययन सूत्र में धर्माचरण का महत्त्व बताते हुए कहा है अहिंस सच्चं च अतेणगं च, तत्तो य बंभं अपरिग्गरं च । पडिवज्जिया पंचमहव्वयाणि, चरिज्ज धम्म जिणदेसियं विऊ ।' "विद्वान् पुरुष को अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पाँच महाव्रतों का स्वीकार करके जिनेन्द्रदेव द्वारा उपदिष्ट धर्म का आचरण करना चाहिए।" जो व्यक्ति धर्म की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, पर उनके जीवन में अधर्म भरा हो, वे बातून हों तो समझना चाहिए, वे वाणीशूर हैं । वास्तविक धर्म आचरण से ही जीवन में आता है, आचरित धर्म ही यथार्थ फल देता है । एक ऐतिहासिक उदाहरण लीजिए चीन में एक महान दार्शनिक हो गये हैं-'ताओ-बू'। उनके पास अगाध ज्ञान था। उनकी ज्ञान की बातें सुनकर लोग झूम उठते थे। एक बार उनके पास चुंग-सिन नामक एक शिष्य धर्म का रहस्य समझने के लिए आया। वह यों समझता था कि कि ताओ-बू धर्म की बड़ी-बड़ी पोथियों में से धर्म के सिद्धान्त समझाएँगे। परन्तु उन्होंने कभी धर्म की पोथी खोली ही नहीं । चुगसिन इसी आशा से गुरु-सेवा करता रहा कि आज नहीं तो कल गुरुजी धर्म का रहस्य बताएँगे । परन्तु वर्षों बीत गये, उन्होंने कभी धर्मशास्त्र की बात नहीं समझाई । चुंगसिन का धैर्य जवाब दे रहा या। एक दिन प्रातःकाल गुरु ताओ-बू शान्ति से बैठे थे, वहाँ सहसा चुंगसिन आया और गुरुचरणों में नतमस्तक होकर बोला- "गुरुदेव ! मैं अनेक वर्षों से आपकी सेवा में धर्म का रहस्य जानने के लिए रहा, परन्तु आपने तो मुझे धर्म की एक भी बात समझाई नहीं। आप तो प्रतिदिन प्रायः यही पूछा करते हैं-"तुमने आज खाया या नहीं। तुम्हें घर याद आता है या नहीं ? तू आज यह वस्तु लाया वह अमुक से पूछकर लाया है न ? तूने किसी को धोखा तो नहीं दिया ? आदि, परन्तु धर्म के विषय में तो आप कभी पूछते ही नहीं।" शिष्य का प्रश्न सुनकर मंद-मंद मुस्कराते हुए गुरु ताओ-ब बोले-"वत्स! मैंने तुझे समय-समय पर धर्म का रहस्य समझाया है, परन्तु वह तेरी समझ में नहीं आया। इसीलिए तू कहता है-आपने धर्म का रहस्य नहीं समझाया। धर्म तो जीवन के साथ गूंथा हुआ है, पर तू धर्म को दैनिक जीवन के कार्यों से अलग समझता है, यही तेरा भ्रम है । अपने हिस्से में आये हुए कार्य को सद्भाव और धर्मभाव से करना ही तो धर्म १. उत्तराध्ययन सूत्र २१/१२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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