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२७० : आनन्द प्रवचन : भाग १२
अत्थिरं परियणसयणं, पत्तकलत्त सुमित्त-लावण्णं । गिहगोहणाइ सव्वं णवघविदेण सारित्थं ॥६॥ सुरधणुतडिव्व चवला, इंदियविसया सुमिच्चवग्गाय ।
दिट्ठपणा सव्वे तुरय-गय-रहवरादीया ॥७॥
अर्थात् -- यह जन्म मरण से युक्त है, यौवन वृद्धावस्था सहित उत्पन्न होता है और लक्ष्मी विनाश के साथ ही आती है। इस प्रकार (जीवन से सम्बद्ध) सभी वस्तुएँ क्षणभंगुर समझो।
जैसे आकाश में छाये हुए नवीन बादल तत्काल बिखर जाते हैं, नष्ट हो जाते हैं, इसी प्रकार इस संसार में परिजन-स्वजन, पुत्र, स्त्री, सन्मित्र, शरीर-सौन्दर्य, घर और गोधन आदि सब वस्तुएँ अस्थिर हैं--नाशवान हैं।
इन्द्रियों के विषय इन्द्रधनुष और बिजली की चमक की तरह चंचल हैं। थोड़ी देर दिखाई देते हैं, फिर तुरन्त ही नष्ट हो जाते हैं । इसी तरह अच्छे नौकरचाकर, घोड़े, हाथी, रथ आदि श्रेष्ठ मानी जाने वाली सभी वस्तुएं नाशवान हैं। इनकी स्थिरता का कोई भरोसा नहीं है ।
निष्कर्ष यह है कि जीवन से सम्बन्धित जितने भी क्रिया-कलाप अथवा प्रवृत्तियाँ हैं, जितनी भी अवस्थाएँ हैं, वे सभी अनित्य हैं । जीवन की कोई भी अवस्था स्थायी नहीं है। आज का युवक समय पाकर वृद्ध हो जाएगा, बीच में ही अकाल मृत्यु से भी मर सकता है । और तो और आयुष्य पूर्ण होते ही देह छूट जाता है, आत्मा कृतकर्मानुसार दूसरी गति में चला जाता है। इसलिए भी यह जीवन अनित्य है, स्थिर या अविनाशी नहीं है । जीव का आयुष्य दो प्रकार का शास्त्र में बताया गया है--सोपक्रमी और निरुपक्रमी। देवता, नारकी, युगलिया, बेसठ श्लाघ्य पुरुष, और चरमशरीरी मनुष्यों का आयुष्य निरुपक्रमी है, शेष जीवों का आयुष्य सोपक्रमी है, अर्थात् किसी न किसी निमित्त से अकाल में ही आयुष्य समाप्त हो सकता है । सोपक्रमी आयु वाले जीवों का आयुष्य सात प्रकार से घटता है। यह एक गाथा द्वारा बताया गया है
__ अज्झवसाणं निमित्त , आहार-वेयणा-पराघाए ।
फासे आणापाणू सत्तविहं छिज्जए आउ ॥ राग, स्नेह या भय आदि के अध्यवसाय के निमित्त से, अतिआहार करे या बिल्कुल आहार न करे, क्षुधा, पिपासा, रोग, शौचादि का निरोध, अजीर्ण सर्प, तीव्र शीतउष्ण आदि का स्पर्श, पानी में डूबने, आग में झलसने से, दण्ड, तलवार, चाबुक, अन्य शस्त्रादि के आघात से, श्वासोच्छ्वास के रोक देने आदि निमित्तों से आयुष्य बीच में ही टूट जाता है । अत्यन्त हर्षावेश में आने से मनुष्य का हार्टफेल हो जाता है । अत्यन्त
१ कार्तिकेयानुप्रेक्षा-अध्र वानुप्रेक्षा
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