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६६. जीवन अशाश्वत है धर्मप्रेमी बन्धुओ !
आज मैं जीवन के एक विशिष्ट सत्य की ओर आपका ध्यान खींचना चाहता हूँ। आप और हम सभी जीवन जीते हैं। परन्तु जीवन के विशिष्ट रहस्य को विरले ही समझते हैं । बहुत-से लोगों की जीवन के सम्बन्ध में विचित्र धारणाएँ बनी हुई हैं । बहुत-से लोग इसी जीवन को अन्तिम मानते हैं । किन्तु जीवन के विशिष्ट तत्त्वज्ञों का मत है कि जीवन अशाश्वत है-क्षणभंगुर है, अनित्य है, वह सदा एक-सा रहने वाला नहीं है, परिवर्तनशील है। महर्षि गौतम इसी सत्य को मानते हैं । अतः इस जीवनसूत्र में उन्होंने इस सत्य का रहस्योद्घाटन किया है
"असासयं जीवियमाहु लोए।" लोक में दृश्यमान यह जीवन अशाश्वत है।
जीवन क्या है ? वह अशाश्वत क्यों है ? शाश्वत क्यों नहीं ? अशाश्वत कहने के पीछे महर्षि का तात्पर्य क्या है ? इन प्रश्नों पर चिन्तन करने पर ही इस जीवनसूत्र का आशय समझ में आ सकता है। अतः आज मैं इसी पर अपना चिन्तन-विश्लेषण प्रस्तुत करना चाहता हूँ । गौतमकुलक का यह बयासीवाँ का जीवनसूत्र है। जीवन क्या है, क्या नहीं ?
सर्वप्रथम मैं आपके समक्ष जीवन की परिभाषा दे देना चाहता हूं, ताकि आप जीवन का रहस्य समझ सकें ।
जीवन से यहाँ तात्पर्य है-मानव-जीवन से । परन्तु मानव-जीवन क्या मानव की आत्मा है, या मानव का शरीर अथवा मानव का कार्यकलाप है अथवा मानव के प्राण या श्वासोच्छ्वास हैं ? सचमुच यहां जीवन के विषय में आपके समक्ष गहराई से संक्षेप में विश्लेषण करने का प्रयत्न करूंगा।
अकेली आत्मा ही मानव-जीवन नहीं है, क्योंकि अकेली आत्मा से जीवन में धर्म की कोई साधना-आराधना नहीं हो सकती। अतः शरीरविहीन या प्राणविहीन अकेली आत्मा मानव-जीवन नहीं कहला सकती। तब प्रश्न होता है, क्या आत्मा से रहित केवल शरीर मानव-जीवन है ? नहीं, ऐसा भी नहीं है । अकेला शरीर, मुर्दा शरीर, मानव-जीवन नहीं हो सकता, क्योंकि अकेला मुर्दा शरीर-आत्मा से रहित शरीर तो जड़ होता है, अचेतन होता है, उससे कोई भी कार्य मानव-जीवन का नहीं हो सकता। शरीर से आत्मा (चैतन्य) के प्रयाण कर जाने के बाद अकेला शरीर कुछ
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