Book Title: Anand Pravachan Part 12
Author(s): Anand Rushi, Shreechand Surana
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 266
________________ सुखोपभोगी के लिए इच्छानिरोध दुष्कर : २३६ ऊँचा उठने और आगे बढ़ने की होड़ लगाता है । ऐसी मनःस्थिति वाले व्यक्ति में अपने को ही अधिक साधन-सम्पन्न और अधिक सुखोपभोग करने में समर्थ बनाने की चेष्टा पनपती है। ऐसे व्यक्ति में प्रायः अपराधी मनोवृत्तियां घर कर जाती हैं। जल्दी सफलता न मिलने पर निराशा छा जाती है और असफलता मिलने पर तो उसकी स्थिति छत से उठाकर खाई में पटक देने जैसी हो जाती है। अनुचित महत्वाकांक्षाओं की आँधी उसे दूर तक उड़ा ले जाती है। व्यक्तिगत भावी सफलता की रंगीन कल्पनाएँ उसमें तीखी आकुलता पैदा कर देती हैं, जो असंतोष के झूले में झुलाती रहती हैं। जब असंतोषजन्य प्रतिस्पर्धा की तृप्ति हेतु मनुष्य व्यक्तिगत अनुपयुक्त महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति में जुट जाता है, उससे सामाजिक दृष्टि से एक बड़ी हानि है-व्यक्तिगत सुख-साधन बढ़ाने, व्यक्तिगत प्रतिष्ठा बटोरने की। इस ज्वर से पीड़ित व्यक्ति दूसरों को सुखी बनाने के लिए अपने सुख-साधनों को छोड़ने को प्रायः तैयार नहीं होता। उसे तो दूसरों से आगे बढ़ना है, ऊंचा उठना है-सफल साधन-सम्पन्न होना है, इसके लिए अपनी सारी शक्ति झौंकना भी कम पड़ता है। ऐसे व्यक्ति समाजसेवा के लिए कुछ कर नहीं सकते। उनकी तथाकथित समाज-सेवा है-सस्ती वाहवाही लूटकर जनसम्मान और जनसहयोग को खींचना और उससे लाभान्वित होकर अपनी अनुचित महत्त्वाकांक्षा पूरी करना। प्रसिद्धि प्राप्त करने के क्रम में वे किसी प्रकार की सेवा, सहायता नहीं कर सकते, क्योंकि सेवा, सहयोग या सहायता देने में तो अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को दबाना पड़ता है। वर्गविद्वष उत्पन्न करने वाले अनैतिक तत्त्वों के मूल में चन्द लोगों की महत्त्वाकांक्षाएँ ही उद्धत होती दिखाई देती हैं। ऐसे महत्त्वाकांक्षी लोग सवर्णों-असवर्णों, धनी-निर्धनों, नर-नारियों, शिक्षितोंअशिक्षितों को लड़ाकर वर्ग-विद्वष पैदा करके अपना उल्लू सीधा करते हैं, झूठी प्रतिष्ठा की भूख मिटाते हैं, और एक प्रबल वर्ग से दूसरे निर्बल वर्ग का शोषण कराते हैं । इस दावानल को सुलगाने से न तो व्यक्ति को सम्पन्नता का सुख मिलता है, न ही समाज को। शोषकों ने अपनी आत्मा गँवाई, शोषितों ने सुविधा। दोनों ही घाटे में रहे। इससे धर्मोन्माद, साम्प्रदायिक वैमनस्य, उद्धत राष्ट्रवाद, जातीय या वर्गीय हिंसक संघर्ष ही प्रायः पनपता है । हिटलर, चंगेजखाँ, नादिरशाह, सिकन्दर आदि की वैयक्तिक विकृत महत्त्वाकांक्षाओं ने दूसरों का रक्त पिया, शोषण किया और उन पर आसुरी अट्टहास किया । इसलिए अनुपयुक्त एवं दूषित महत्त्वाकांक्षाएं सुखोपभोग में बहुत बड़ी बाधक हैं। ३. निरंकुश भोगवाद-सुखोपभोग में तीसरी बाधक वस्तु है-निरंकुश भोगवाद । निरंकुश भोगवाद का अर्थ है-जिसके खाने-पीने, पहनने, धन रखने, मकान रखने, आदि पर कोई नियन्त्रण नहीं है । क्या सुनना, क्या नहीं सुनना ? क्या बोलना, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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