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२६४ : आनन्द प्रवचन : भाग १२
सारी चेष्टाएँ कुत्सित, घृणित, अदूरदर्शी एवं क्षणिक सुखोपभोग के आसपास ही चक्कर लगाया करती हैं । इन्द्रियनिग्रह जागृत रहने से कितना सरल हो जाता है, इसके लिए एक आधुनिक उदाहरण लीजिए
_ तिवरी (जोधपुर) निवासी सेठ फकीरचन्द के पास लाखों की सम्पत्ति थी। मध्यप्रदेश में अच्छा कारोबार था । सब तरह से समृद्ध होते हुए भी संत-समागम, शास्त्रवाचन तथा इन्द्रियनिग्रह के अभ्यास की ओर उनका ध्यान था। संसार के भोग उन्हें नीरस प्रतीत होने लगे । दुनियादारी जंजाल मालूम होती थी। अभी जवानी थी। बच्चे छोटे थे। माता और पत्नी नहीं चाहती थीं कि वे संसार से इतने विरक्त होकर मुनीम-गुमाश्तों के भरोसे कारोबार छोड़ दें। माताजी ने उनकी विरक्ति देखकर उन्हें परदेश जाकर कारोबार सम्भालने की आज्ञा दी तो वे परदेश अपनी फर्म सम्भालने हेतु पहुँच गये । परन्तु वहाँ भी प्रतिक्षण जागृत रहकर आत्मचिन्तन करने लगे। न खाने-पीने की आसक्ति, न अच्छे वस्त्राभूषण पहनने का शौक, न ही सिनेमा आदि मनोरंजन के साधनों में दिलचस्पी थी, और न ही भोग-विलास के साधनों में कोई रुचि थी। आत्मानन्द के सामने उन्हें ये सब फीके मालूम होते थे। सेठजी अपने इन्द्रियसंयम की यात्रा में सतत जागरूक थे। वे अपनी ही मस्ती में रहते थे। यह देखकर माताजी ने सेठ फकीरचन्दजी को पुनः तिवरी बुला लिया । यहाँ भी वे इन्द्रियसंयम से रहते थे।
मारवाड़ में प्रायः खिचड़ी ही सायंकाल का भोजन है । एक दिन सेठानीजी खिचड़ी उतारकर पानी लेने चली गईं। पास ही भैंस के लिए बाँटा रखा हुआ था। सेठजी भोजन करने आए । वृद्धा माँ भोजन परोसने लगीं । आँखों से कम दिखाई देने के कारण माताजी ने खिचड़ी के बदले बाँटा परोस दिया उनकी थाली में । सेठजी वही भोजन करके चले गये । सेठानी ने आकर देखा तो खिचड़ी ज्यों की त्यों पड़ी है। पूछने पर सारी बात मालूम हुई । दूसरे दिन सेठजी के उपवास था, अतः सारे दिन उपाश्रय में ही रहे । तीसरे दिन सबेरे जब वे आए तो माँ ने आँखों में आँसू भरकर कहा- "बेटा ! मुझे तो कम दिखता था, परन्तु तुमने भी देखकर कुछ कहा नहीं। खिचड़ी के बदले भैस का बाँटा खा गए !" पुत्र फकीरचन्द ने उत्तर दिया-"माँ ! जो पदार्थ भैंस नित्य खाती है, क्या मैं उसे एक बार भी नहीं खा सकता? फिर चिन्ता की क्या बात है ?"
यह है इन्द्रियनिग्रह के विषय में जागरूकता के कारण युवावस्था में भी दुष्कर न लगने का ज्वलन्त उदाहरण ! आदतों पर नियंत्रण और निरीक्षण के अभाव में
कुछ लोग विभिन्न इन्द्रियों से विभिन्न प्रकार की निरर्थक क्रियाएँ करते रहते हैं। एक प्रकार की उनकी आदत-सी बन जाती है । वे इन्द्रियों की इन चेष्टाओं द्वारा ऐसे बेतुके कार्य करते रहते हैं, जिनसे इद्रियाँ चंचल हो उठती हैं , और स्वयं को तथा
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