Book Title: Anand Pravachan Part 12
Author(s): Anand Rushi, Shreechand Surana
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 249
________________ २२२ | आनन्द प्रवचन : भाग १२ मन में बहुत पश्चात्ताप एवं दुःख हुआ। छोटे भाई को गुजरे ६ महीने हो गए तब भी बड़े भाई के मन से वह अपसोस नहीं गया । लोग भी बराबर कहते रहते थे कि "बड़े भाई ने छोटे भाई के लाठी मारकर प्राण ले लिए।" अतः बड़े भाई के मन में विचार आया-'अगर मैं इस गाँव में रहूँगा तो जिन्दगी भर मुझे लोग सुख से नहीं रहने देंगे, बराबर टोकते और कोसते रहेंगे। फिर छोटे भाई की विधवा पत्नी और उसके छोटेछोटे बच्चों के सामने मुझ से देखा नहीं जाता । इससे बेहतर यही है कि मैं इस गाँव को छोड़कर अन्यत्र कहीं चला जाऊँ ।' यों सोचकर बड़ा भाई सौराष्ट्र छोड़कर अपनी पत्नी और बालकों को लेकर चित्तौड़ आ बसा । चित्तौड़ आकर उसने अपनी काव्य कुशलता और शक्ति से वहाँ की राजसभा में स्थान जमा लिया। कुछ ही अर्से में वह कविरत्न के रूप में वहां प्रसिद्ध हो गया। कवि की मृत्यु के बाद उसका पुत्र भी पिता से बढ़कर चतुर निकला, वह भी कविरत्न हो गया। सौराष्ट्र का वह कवि-पुत्र राणा का इतना प्रिय एवं सम्मानित व्यक्ति हो गया कि घर से राजसभा में ले जाने के लिए राज्य की ओर से पालकी लेकर राजसेवक आते और वहाँ से उसे घर पहुंचाते। राज्य की ओर से उसके यहाँ नौकर-चाकर और रसोइया नियुक्त किये गये । उसके घर के चारों ओर सरकार की ओर से पहरा रहता। इतने वैभव और प्रभुत्व से सम्पन्न थे ये कविरत्न । उसमें सुन्दर आकर्षक कविता बनाने और साहित्य रचना करने की अद्भुत शक्ति थी। राजा या दरबारी उसकी बात से कभी इन्कार नहीं कर सकते थे । इतना होते हुए भी प्रभुता एवं शक्ति का मद या क्रोधावेश उसमें जरा भी नहीं था। इतना पवित्र, क्षमाशील एवं नम्र कवि था वह । उसके पिता चित्तौड़ में आकर जितने सुखी हुए उसकी अपेक्षा पुत्र सवाया सुखी हुआ। उधर सौराष्ट्र में उसके पिता के द्वारा लाठी के प्रहार से उनका छोटा भाई गुजर गया था, उनके (चाचा के) दो पुत्र थे। वे भी बड़े होकर कवि बने । एक बार दोनों पुत्रों ने अपनी माँ से पूछा- "मां ! हमने सयाने होने के बाद अपने पिताजी नहीं देखे, वे छोटी उम्र में ही कैसे चल बसे ?'' । उनकी मां ने कहा- 'तुम्हारे पिताजी मौत से नहीं मरे, उनके बड़े भाई ने उनके लाठी मारी । मारते ही वे नीचे गिर पड़े और उनके प्राण छूट गये।" यह सुनते ही दोनों पुत्रों का खून उबल पड़ा । कहने लगे- "बस ! अब तो हम पिता की हत्या करने वाले से बदला लेकर ही दम लेंगे । बता वे कहाँ हैं ?" मां बोली-' सुना है वे चित्तौड़ जा बसे हैं। वहाँ बड़े कवि बने हैं।'' यह सुनकर छोटे भाई के दोनों पुत्र चित्तौड़ आए । वहाँ किराये से एक मकान लेकर रहने लगे। कुछ ही अर्से में राजसभा में आ-जाकर वे संगीतकार के रूप में जम गये । यहाँ चाहे जितने कवि या संगीतकार आते, पर राजमान्य कविरत्न की तुलना नहीं कर सकते थे, क्योंकि बुद्धि एवं शक्ति होते हुए भी दूसरों में अभिमान, क्रोध, लोभ आदि विकार होते थे, जबकि कविरत्न में ये सब दुर्गुण न थे । वे निरभिमानी, गंभीर, निर्लोभी एवं ईर्ष्यारहित थे। राज Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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