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२२४ : आनन्द प्रवचन : भाग १२
कविरत्न बोले-भाई ! मैं भागने की नहीं, तुम्हें बचाने की युक्ति कर रहा हूँ। तुम्हारी आत्मा को मुझे मारने से शान्ति मिलती हो, और वैर-परम्परा का विसर्जन होता हो तो मैं अभी मरने को तैयार हूँ। मुझे मरने का डर नहीं है। तुम विश्वास रखो, मैं आज रात को अवश्य शंकर मन्दिर में पहुँच जाऊँगा । वहाँ तुम निर्भयतापूर्वक मुझे मार सकोगे।" वे दोनों बोले- "हमें तेरी बात पर विश्वास तो नहीं है कि तू मरने को आएगा । पर इस समय तेरी पवित्रता की बातों पर विश्वास कर लेते हैं । नहीं आया, तो देख लेना।"
घर आकर कविरत्न ने अपनी पत्नी से कहा- "आज एक दिव्य संन्देश सुनाने आया हूँ। मेरे दोनों चचेरे भाई अपने पिता का वैर लेने के लिए आये हैं। आज इस प्रकार बना है । बोलो, तुम्हारी क्या इच्छा है ? वैर-परम्परा रखनी या रोकनी है ?"
पत्नी बोली- "प्राणनाथ ! वैर विष है। हमें किसी के साथ वैर नहीं रखना है।"
कविरत्न-"तो तुम्हें मेरा मोह छोड़ना होगा। आज रात को उन्हें दिए गए वचनानुसार मुझे शंकर मन्दिर में जाना है । तुम्हारी अनुमति है न?'
पत्नी-"प्राणनाथ ! किस पतिव्रता को अपने पति को मरने के लिए भेजते दुःख न होगा । तथापि आप वैरबीज को जलाने हेतु खुशी से अपना बलिदान दे रहे हैं, इसके लिए मैं सहर्ष अनुमति देती हूँ।" ।
कविरत्न भी झट-पट तैयारी करके दस बजे से पहले निश्चित स्थान में पहुंच गए । उन दोनों को विश्वास नहीं था कि कवि आ पहुँचेगा, परन्तु फिर भी कौतुकवश दोनों भाई तलवार लेकर वहाँ आ पहुँचे। कविरत्न ने दोनों से कहा-"प्रिय भाइयो ! मैं आ गया हूँ। तुम कहो वैसे खड़ा रहूँ। तुम अपनी तलवार लेकर जल्दी काम निपटाओ और अपनी आत्मा को शान्ति दो।"
बन्धुओ ! जरा सोचिए तो सही ! कविरत्न, जो लोकप्रिय और राजप्रिय थे। इन्हें पता लग गया था कि ये दोनों मुझे मारने हेतु आए हैं, चाहते तो राजा के पास खबर भेजकर उन्हें कैद में डलवा सकते थे। परन्तु वे समर्थ थे। उन्होंने वैर-परम्परा को समाप्त करने हेतु शूरवीरता और क्षान्ति अपनाई थी। मौत सामने नाच रही है, फिर भी उनके चहरे पर अद्भुत शान्ति है। वे प्रभु से प्रार्थना करते हैं। फिर नमस्कार महामंत्र के स्मरण में लीन हो जाते हैं।
ज्यों ही वे दोनों कविरत्न को मारने के लिए तलवार उठाते हैं, त्यों ही घोड़ों के टाप सुनाई दिये । दोनों भाई घबराए कि कई मनुष्य हमें पकड़ने के लिए घोड़ों पर आ रहे हैं। हमें पकड़ कर मार देंगे। अतः दोनों के हाथ नीचे हुए। गुस्से होकर कविरत्न से कहने लगे-"हमारे साथ तुमने धोखेवाजी की है, अकेले आने का कहा था, पर ये कौन आ रहे हैं ?" ।
कविरत्न-"मैंने किसी से आने का नहीं कहा । मुझे पता नहीं, ये कौन और क्यों आ रहे हैं ?"
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