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६३. समर्थ के लिए क्षान्ति दुष्कर धर्मप्रेमी बन्धुओ!
___आज मैं आपके समक्ष जीवन की चार सुदुष्कर वस्तुओं में से द्वितीय सुदुष्कर वस्तु के सम्बन्ध में प्रकाश डालूंगा। महर्षि गौतम ने द्वितीय दुष्कर वस्तु बताई हैसमर्थ के लिए क्षान्ति । गौतम कुलक का यह ७६वाँ जीवनसूत्र है। जिस का शब्दशरीर इस प्रकार है
पहुस्स खंती सुतुक्करा प्रभु-समर्थ के लिए क्षान्ति अत्यन्त दुष्कर है ।
प्रभु किसे कहना चाहिए ? क्षान्ति से यहाँ क्या तात्पर्य है ? समर्थ के लिए शान्ति रखना क्यों सुदुष्कर है ? इन सब प्रश्नों पर इस प्रवचन में चिन्तन प्रस्तुत करूंगा। प्रभु कौन और कैसे ?
सर्वप्रथम विचारणीय यह है कि प्रभु किसे कहना चाहिए ? लोकोत्तर क्षेत्र में तो प्रभु भगवान या अवतार को कहते हैं। परन्तु यहाँ लौकिक क्षेत्र के प्रभु से तात्पर्य है । इसलिए लौकिक क्षेत्र में प्रभु के मुख्यतः ४ अर्थ हो सकते हैं-(१) समर्थ, (२) शक्तिशाली, (३) स्वामी, और (४) प्रभुता-प्राप्त ।।
समर्थ वह होता है, जो अपने व्यक्तित्व, योग्यता और क्षमता के बल पर परिवार, समाज और राष्ट्र में सब कुछ करने में समर्थ होता है, लोग उसकी बात मानते हैं; इसलिए कि उसमें कार्य करने की क्षमता है, टूटे हुए दिलों को जोड़ने की शक्ति है, बौद्धिक प्रतिभा है । उसे मनीषीगण समर्थ कहते हैं।
शक्तिशाली भी प्रभु कहलाता है। प्राचीन काल में चक्रवर्ती, सम्राट, राजामहाराजा आदि शक्तिशाली होते थे, जो अपने शत्र ओं तथा शत्र राज्यों पर विजय प्राप्त करके अपने अधीन कर लेते थे। इस प्रकार के शक्तिशालियों से लोग थर्राते थे। उनकी बात पर गौर करते थे, उनसे विरोध नहीं करते थे।
प्रभु का अर्थ स्वामी भी होता है । किसी सत्ताधारी या धनाढ्य के यहाँ रहने वाले दास-दासी या नौकर-चाकर उसे प्रभु कहते थे, स्वामी भी कहते थे। आर्य-पत्नी अपने पति को स्वामी के बदले प्रभु भी कहती थी।
और प्रभु का शब्दशः अर्थ होता है—प्रभुता-सम्पन्न । अर्थात्-किसी न किसी पद, अधिकार या नेतृत्व को प्राप्त करने वाला व्यक्ति भी प्रभु कहलाता था ।
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