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२०६ : आनन्द प्रवचन : भाग १२
'दारिद्र्यनाशनं दानम्' -दान दरिद्रता को नष्ट कर देता है।
दरिद्र के लिए दान : कितना सुकर, कितना दुष्कर? वास्तव में देखा जाए तो जब मनुष्य अपनी स्वल्प सामग्री में से कुछ भी दान देता है तो उसके मन और बुद्धि का दारिद्र य तो उसी समय मिट जाता है, रही बात धन के दारिद्र य की, वह भी देते रहने से खलता नहीं है।
जिस समय संस्कृत साहित्य के प्रसिद्ध कवि माघ के पास कुछ नहीं बचा था, फाके चल रहे थे। उन दिनों में माघ के पास एक दरिद्र किन्तु विद्वान ब्राह्मण अवन्तिका से उपस्थित हुआ, अपनी कन्या के विवाह के हेतु आर्थिक सहायता की मांग लेकर । सहृदय माघकवि के पास कुछ नहीं था, दरिद्र ब्राह्मण को १०. मुद्राओं की जरूरत थी। जब वह निराश होकर जाने लगा तो माघ कवि से देखा न गया । उन्होंने ब्राह्मण को बैठक में बिठाया, स्वयं भीतर गये । चारों कोने साफ थे। कोई भी मूल्यवान् वस्तु बची न थी। सिर्फ पत्नी के हाथों में सोने के दो कंगन चमक रहे थे । घर की सम्पन्नता के वही अन्तिम स्मारक थे। विवाह के भी वही अन्तिम स्मरण-चिन्ह थे ; जिन्हें उनकी पत्नी बचाये हुए थी। माघ ने चुपचाप सोई पत्नी के हाथ से कंगन निकाल लिया । वे ज्यों ही, उसे लेकर चले कि उनकी पत्नी की आँख खुल गई। चौंककर पूछा- “कौन ?"
माघ ने कहा- "चोर ! मैं तुम्हारा गहना चुराकर लेजा रहा था, तुम मुझे जो भी दण्ड देना चाहो, दे सकती हो ।”
पत्नी बोली-“चोरी तो दूसरे की वस्तु को होती है। मेरा तो सर्वस्व आपका है, फिर आपको चोर कैसे मानू ? पर कहिए तो, इसकी जरूरत क्यों पड़ी ?"
माघ ने कहा-"प्रिये ! हमारे द्वार पर एक दीन ब्राह्मण आया है, धन के अभाव में उसकी युवती कन्या अभी तक अविवाहित है । उसने बड़ी आशा से मुझसे सो मुद्राओं की याचना की। उसे निराश कैसे लौटने दू? यह तो घर का अपमान है और पुण्य-लाभ का अवसर खोना है कि कोई व्यक्ति निराश होकर यहाँ से लौटे । तुम्हारी स्वीकृति हो तो एक कंगन उसे दे दू, इससे उसका काम चल जाएगा।"
पति की बातें सुनकर पत्नी ने दूसरे हाथ का कंगन भी निकालकर देते हुए कहा-"प्राणनाथ ! यह दूसरा कंगन भी आप मेरी ओर उसे दे दीजिए, जिससे उसका कार्य धूमधाम से हो।"
नारी का मुखमण्डल दोनों कंगनों को देते हुए हर्ष और स्वात्माभिमान से दमक उठा । माघ ने दोनों कंगन प्रसन्नतापूर्वक उस याचक को देते हुए अपनी शुभकामना भी प्रकट की। ब्राह्मण ने कृतज्ञतापूर्वक दोनों कंगन स्वीकार किये
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