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मद्य में आसक्ति से यश का नाश : ११७
गाता । अगर मदिरापान से उसकी मृत्यु हो गयी तो भी उसकी अपकीति का डिडिमघोष होगा कि “देखो उस पियक्कड़ को, हमने कितना मना किया था, पर नहीं माना; आखिर शराब उसे ले ही डूबी !"
धर्मशास्त्रों द्वारा निषिद्ध निन्द्य वस्तु का सेवन यह तो हम पहले बता चुके हैं कि मद्य सभी धर्मशास्त्रों एवं धर्मों द्वारा निषिद्ध और निन्द्य है। इससे जीवन में अनेक दोषों की उत्पत्ति होती है। देखिये हारिभद्रीय अष्टकटीका में मद्यपान के १६ दोषों का उल्लेख
वैरूप्यं व्याधिपिण्डः स्वजनपरिभवः कार्यकालातिपातो, विद्वषो ज्ञाननाशः स्मृतिमतिहरणं, विप्रयोगश्च सद्भिः । पारुष्यं नीचसेवा कुलबलविलयो धर्मकामार्थहानिः,
कष्टं वै षोडशेते निरुपचयकरा मद्यपानस्य दोषाः ॥ आत्मा को पतित करने वाले कष्टदायक ये १६ मद्यपान के दोष हैं
(१) वरूप्य (शरीर का बेडोल और कुरूप होना), (२) व्याधिपिण्ड (रोगों का घर), (३) स्वजन-परिभव (परिवार में तिरस्कार), (४) कार्य करने में विलम्ब करना, (५) विद्वेष पैदा होना, (६) ज्ञान का नाश, (७-८) स्मृति और बुद्धि का नाश, (8) सज्जनों से अलगाव, (१०) वाणी में कठोरता, (११) नीच जनों का सहवास, (१२) कुल का नाश, (१३) बल का नाश, (१४-१५-१६) धर्म, अर्थ और काम की हानि ।
वास्तव में मद्यपान के फलस्वरूप होने वाले इन १६ दोषों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि दोषों के स्रोत मद्यासक्ति से अपने संचित यश का नाश ही होता है, चाहे वह कितना ही धनसम्पन्न हो, सत्ताधीश हो, अथवा कोई भी पदाधिकारी हो। क्य। कोई कह सकता है, कोई भी व्यक्ति हृदय से ऐसे दोषों के भण्डार मद्यपायी का यशोगान करेगा? _ महात्मा गांधी ने मदिरा को समस्त बुराइयों की जड़ और पापों की जननी बताया है, फिर इस पापों की माँ मदिरा का सेवन करने वाले के यशोगीत कौन गायेगा ? आत्मविकास को तो मदिरा आग लगाने वाली है। फिर इसका सेवन करने वाला कैसे यशोभागी हो सकता है ? बल्कि यों कहना चाहिए कि मदिरा यशोराशि को आग लगाने वाली है।
जान-बूझकर आध्यात्मिक पतन मदिरा पीकर जो लोग मत्त होते हैं, वे अपने आत्म-गुणों को पीते ही तिलांजलि दे देते हैं, आत्मा के विकास पर गहरा काला पर्दा डाल देते हैं, उन्हें आत्मा का भान तो दूर रहा, अपने मन, बुद्धि और शरीर तक का भी भान नहीं रहता । योगशास्त्र में मद्यपान से निम्नोक्त आत्मिक गुणों का नाश बताया है
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