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१४८ : आनन्द प्रवचन : भाग १२
के लिए मछलियों की, रोंएदार फर के लिए पक्षियों की, बढ़िया मुलायम चमड़े के लिए कई पशुओं की, और भी अनेक निर्दोष प्राणियों की फैशन के लिए हत्या की जाती है। ये हिंसाएँ केवल शृंगार प्रसाधन या फैशन के नाम पर की जाती हैं। इस क्रूर हिंसक व्यवसाय में लाखों लोग लगे हुए हैं। इनका धड़ल्ले से उपयोग करने वाले यदि यह देख-समझ पाते कि उनकी इस विलासिता के लिए कितने निर्दोष प्राणियों को करुण चीत्कार करते हुए अपने प्राण देने पड़ते हैं तो उन्हें अपने पर कदाचित् घोर घृणा आ सकती थी।
एक 'कैनेडियन थियोसोफिस्ट' ने अपने देश के कछुए की पीठ से बने विभिन्न कलात्मक उपकरणों की वृद्धि की चर्चा करते हुए लिखा था-"कछुओं की पीठ काट ली जाती है और फिर उन्हें मार्मिक वेदना सहते हुए नई पीठ उत्पन्न करने के लिये जीवित रहने दिया जाता है। इस प्रकार बार-बार उनके साथ नृशंस व्यवहार किया जाता है । प्रायः ७६००० पौंड से अधिक वजन के कच्छप उपकरण तो विदेशों को ही निर्यात किये जाते हैं, वहाँ की खपत तो और भी अधिक है।" .. दवाओं, प्रयोगों, परीक्षणों आदि के नाम पर घोर हिंसा
मछलियों को उबालकर निकाला जाने वाला तेल, कॉडलिवर आइल आदि औषधियाँ शरीर को पुष्ट करने के नाम पर पी जाती हैं, परन्तु जिन प्राणियों को प्राण देने पड़े, उनका क्या अपराध था कि उसकी हत्या की गई ?
___आजकल डाक्टरी अन्वेषण और औषधियों के परीक्षण के निमित्त सीरम और वेक्सीन बनाने के लिए, व्यापारिक चीजों के परीक्षण के लिए तथा जीवविज्ञान की शिक्षा के लिए विविसेक्शन पद्धति के माध्यम से तरह-तरह से प्राणियों पर घातक अत्याचार किये जाते हैं। विविसेक्शन पद्धति में मेंढक, खरगोश और अन्य कई प्रकार के जीवों को काटकर, जलाकर, तपाकर, टुकड़े-ट्रकड़े करके, बिजलो का झटका देकर तरह-तरह के परीक्षण किये जाते हैं। इस तरह शिक्षा के नाम पर निर्बल प्राणियों के साथ जो घातक व्यवहार किया जाता है, उन्हें कष्ट पहुँचाकर मारा जाता है, वह निन्दनीय है। अनेक विदेशी विद्वानों ने इसे अनावश्यक बताया है। इस तरह के निर्दय परीक्षण किये बिना भी जीवविज्ञान सिखाया जा सकता है। छोटी उम्र के विद्यार्थियों के सम्मुख इस प्रकार के निर्दयतापूर्ण प्रयोगों से उनकी कोमल मनोवृत्तियों का हनन हो जाता है । वे भविष्य में विशेष स्वार्थी और अन्य लोगों के सुख-दुःख के प्रति उपेक्षाभाव रखने वाले बन जाते हैं। समाज-कल्याण की दृष्टि से यह बहुत हानिकारक है ।
भारत में ऐलोपैथिक दवाओं का प्रचलन बढ़ जाने से यहाँ भी असंख्य जीवों को दवाइयाँ बनाने के लिए मौत के मुंह में धकेल दिया जाता है।
प्रसिद्ध जीवशास्त्री डॉ० जे० बी० एस० डाल्टेन ने अनुरोध किया है कि "मनष्य स्वपीड़न का अनुभव करके परपीड़न का अनुभव करे तो उसे पता लगें कि
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