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वेश्या-संग से कुल का नाश : १२३
लाटी संहिता में वेश्या का स्वरूप बताते हुए कहा है
'पण्यस्त्री तु प्रसिद्धा या वित्तार्थ सेवते नरम् ।
तन्नाम दारिका दासी वेश्या पत्तननायिका ॥ -जो स्त्री केवल धन के लिए पुरुष का सेवन करती है, वह वेश्या कहलाती है। संसार में वह पण्यस्त्री (देह बेचने वाली स्त्री) के नाम से प्रसिद्ध है । उसे दारिका, दासी (देवदासी), वारांगना, गणिका (वेश्या) या नगर-नायिका (नगरवधू) के नाम से पुकारा जाता है।
देशी भाषा में गोग्ग नाम की एक वेश्या स्वयं वेश्या वृत्ति की निन्दा करती हुई कहती है
वेश्या विषनी वेलड़ी, कामी कुकुम वृक्ष। बाली बाउलीउ करिय, लघुवय मांहि लक्ष ।। वेश्या पाबक-पूतली, कामी काठ शरीर ।
तन धन यौवन सिउ दहइ, रहि न नाम्यां नीर ॥ –वेश्या तो विष की बेल है । अल्पवयस्क कामीरूपी कुमकुम वृक्ष के अगर यह वेश्यारूपी बेल चिपट जाए तो उसे जलाकर बबूल बना देता है । वेश्या आग की पुतली है, कामी के काष्ठ-शरीर को यदि इसने जरा भी छुआ कि उसके तन, धन, यौवन आदि को अवश्य जला देगी फिर चाहे जितना पानी छींटो, वह जलने से बचेगा नहीं।
वैदिक धर्मग्रन्थों में नारी के जिस रूप का वर्णन है, कि वह स्वभाव से ही लज्जा, दया, क्षमा, सेवा, स्नेह की मूर्ति होती है, उससे ठीक विपरीत रूप वेश्या में देखने में आता है। वह निर्लज्जा, हृदयहीना, निर्दय, क्रूर, स्वार्थमूर्ति एवं धनलोलुप होती है । वेश्या में सरलता, निश्छलता, नम्रता आदि गुण नाममात्र को भी नहीं होते । यही आश्चर्य है कि यह कुलटा धन के लोभ में आकर किसी भी पुरुष के रूप, वय, गुण आदि को नहीं देखती, चाहे जिसके साथ अपने अमूल्य मानव-शरीर का सौदा कर लेती है । जो ज्यादा धन देता है, उसी को अपना शरीर सौंप देती है।
कोई कुष्ट-रोगी हो, दुर्बल हो, बूढ़ा हो, अंग लड़खड़ा रहे हों, काला हो या गोरा, सुखी हो या दुःखी, चमार, भंगी हो या ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य हो, वेश्या को उससे कोई मतलब नहीं । किसी का घर उजड़ता हो, किसी का शरीर टी. बी., कैंसर या दमा के रोग से ग्रस्त होता हो, कोई अपने चारित्र से, शील से भ्रष्ट होकर भयंकर पापकर्म करके चाहे नरक-तिर्यञ्च में जाता हो, वेश्या को इसकी बिलकुल चिन्ता नहीं । वेश्या की तो वैश्य-वणिक्वृत्ति है, जो धन अधिक देता है, वहीं वह
१. लाटी संहिता २/१२२
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