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१३८ : आनन्द प्रवचन : भाग १२
कोई दण्ड निश्चित हो या न हो, चाहे सरकारी कानून की गिरफ्त से बच जाये परन्तु कर्मों-पापकर्मों के कानून से वह कहाँ बच सकता है ? जब वह कर्मन्यायालय में पहुँचेगा, तब तो उसकी आत्मा त्राहि-त्राहि कर उठेगी ? उफ ! इतनी भयंकर सजा ! कई बार तो उस हिंसा का फल तत्काल मिल जाता है, कई बार कुछ देर से, परन्तु हिंसा का कटुफल अवश्यमेव मिलता है।
परन्तु मनुष्य अपने आपको सबल, समर्थ और सशक्त समझकर, अपनी बुद्धि की सर्वश्रेष्ठता का अभिमान करके तथा अपने अहं के नशे में चूर होकर निर्बल, निरपराध, निर्दोष एवं मूक पशुओं, पक्षियों, मानवों आदि के प्राणों को सताने, पीड़ा देने, विविध प्रकार से यातना देने, उनके अंग-भंग करने, प्राणहरण करने में जरा भी नहीं हिचकिचाता । जरा भी विचार नहीं करता कि दूसरे प्राणी ने मेरा क्या बिगाड़ा है ? एक पशु अपनी मस्ती में स्वतन्त्र विचरण कर रहा है, हँसी-खुशी से अपना जीवन व्यतीत कर रहा है, वह उसका कुछ भी बिगाड़ नहीं रहा है, कोई नुकसान नहीं पहुंचा रहा है। किन्तु मनुष्य बिना किसी कारण के जानबूझकर उसे मार-पीट देता है, उसकी गर्दन पर छुरी फेर देता है, उसके प्राणों का ग्राहक बन जाता है, उसे मारकर खा जाता है, उसे भयंकर कष्ट देता रहता है । वह उस समय यह विचार नहीं करता कि जिस प्रकार मुझे अपने प्राण प्रिय हैं वैसे ही दूसरों को भी अपने प्राण प्रिय हैं, जैसे स्वयं सुखपूर्वक जीना चाहता है, और जीवन की रक्षा के लिए मनुष्य प्रयत्न करता है, वैसे ही दूसरे सभी प्राणी सुखपूर्वक जीना चाहते हैं। कोई उसे काँटा चुभोता है, तो पीड़ा के मारे कराह उठता है, वैसे ही दूसरे प्राणी को काँटा चुभोने का दर्द होता है । जो दूसरे प्राणियों के प्रति किसी भी प्रकार की संवेदना, सहानुभूति, हमदर्दो, या आत्मीयता नहीं रखता, और दूसरों का मनमाने ढंग उत्पीड़न करता है, त्रास देता है, उसका यह कार्य हिंसा है।
हिंसा के पीछे करता, बेरहमी, निर्दयता, तुच्छ स्वार्थ, शोषण-उत्पीड़न की दुर्भावना, कठोरता आदि दुर्भाव होते हैं, राग और द्वेष के कीटाणु होते हैं। क्रोध, अहंकार, छल-कपट, लोभ और तृष्णा की भयंकर दौड़ होती है। हिंसा के पीछ अज्ञान, अविवेक, अन्धविश्वास, स्वत्वमोह जैसे राक्षसों के हाथ होते हैं जो हिंसा की पीठ ठोकते रहते हैं। जिसे दूसरों के प्राणों परवाह नहीं है, वहीं हिंसा नृत्य करती है । जिसे दूसरों की जिंदगी से खिलवाड़ करने की धुन सवार है, वहाँ हिसा खुलकर खेलती है । जहाँ मन, वचन, काया पर किसी प्रकार का कंट्रोल न हो, वहाँ हिंसा को स्वच्छन्दता से काम करने का मौका मिलता है। जहाँ मनुष्य अपनी आत्मा के पतन के प्रति जागृत नहीं होता, अपने धर्म-अधर्म का, पुण्य-पाप का, कर्मबन्ध-कर्मक्षय का जहाँ अविवेक है, वहाँ हिंसा बहुत जल्दी आ धमकती है और अधर्म, पाप और पापकर्मबन्ध की साथी बन जाती है । वह जिस पर टूट पड़ती है, उसे कैसी लगती है ? इस विषय में प्रश्नव्याकरणसूत्र की अनुभूति एवं साक्षी सुनिये
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