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८६. हिंसा में आसक्ति से धर्मनाश
धर्मप्रेमी बन्धुओ !
आज मैं सप्त कुव्यसन के सन्दर्भ में पंचम दुर्व्यसन से सद्धर्म के विनाश के सम्बन्ध में अपना चिन्तन प्रस्तुत करूँगा । यहाँ पंचम दुर्व्यसन का नाम हिंसा रखा है परन्तु इसका प्रचलित नाम शिकार है। आधुनिक भाषा में हम उसे 'हत्या' कह सकते हैं । नैतिक जीवन-निर्माण के लिए इसका त्याग करना अनिवार्य है । इसीलिए महर्षि गौतम ने इससे सावधान एवं दूर रहने का संकेत किया है। इस जीवनसूत्र का रूप इस प्रकार है
'हिंसा पसत्तस्स सुधम्मनासो' 'जो हिंसा में रत रहता है, उसके सद्धर्म का नाश हो जाता है।' गौतमकुलक का यह ७५वाँ जीवनसूत्र है। हिंसा से यहाँ क्या तात्पर्य है ? नैतिक जीवन के लिए इसका त्याग क्यों अनिवार्य है ? इससे क्या-क्या हानियाँ हैं ? इसमें आसक्त व्यक्ति का सद्धर्म नष्ट कैसे हो जाता है ? आदि विविध पहलुओं पर चिन्तन प्रस्तुत करना आवश्यक है । अतः आज इस पर प्रकाश डालूगा।
हिंसा से यहाँ क्या तात्पर्य है ? प्रश्न होता है, हिंसा क्या है ? प्रमाद, कषाय और अन्य किसी असद्वृत्ति-प्रवृत्तिवश किसी भी प्राणी के प्राणों का नाश करना, सताना, हानि पहुँचाना और भयभीत करना, मारना-पीटना आदि हिंसा है । तत्त्वार्थसूत्र में हिंसा का लक्षण दिया गया है
'प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा' -प्रमाद (मद्य, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा आदि) के योग से दस प्राणों में से किसी भी प्राण को नष्ट करना हिंसा है।
वर्तमान विश्व पर दृष्टिपात किया जाय तो भारत जैसे धर्मप्रधान एवं ऋषिमुनियों के देश में अनेक प्रकार से लोग प्राणियों का आये दिन प्राण-वध निःसंकोच करते हैं। उन्हें कोई विचार भी नहीं आता कि हम क्यों दूसरों की जिन्दगी से खिलवाड़ कर रहे हैं ? अपने जरा से स्वार्थ के लिए, अपने जरा से मनोविनोद के के लिए, अपने अहं के पोषण के लिए, अपनी सत्ता जमाये रखने के लिए, अपनी प्रतिष्ठा बरकरार रखने के लिए दूसरे के ५ इन्द्रियों, मन, वचन, काया, श्वासोच्छ्वास एवं आयु इन दस प्राणों में से किसी भी प्राण को हानि पहुँचाते, नष्ट करते, अंगच्छेद करते, उनके दम घोंटते क्यों नहीं हिचकिचाते ? सरकारी कानून में चाहे उसके लिए
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