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१.२६ : आनन्द प्रवचन : भाग १२
ste का माल भी उसके यहाँ आता है । वह किसी एक की नहीं होती । वह तो प्रायः धन पर दीवानी होती है । धन समाप्त होते ही वह उसे लात मारकर भगा देगी । कर्पूरकर में वेश्या के स्वरूप का स्पष्ट चित्रण किया गया है
वेश्या विश्वकलत्रमत्र तदहो पानीयशालाजले, यवत् कान्दविकाशने च शुचिता का प्रायशस्तादृशी ।
तस्मात् सा कृतपुण्यवत् कृतकमुच्छोकोदया किं प्रिया, पूर्णेऽलं विशदा स्वभावकलुषा दोषाऽपिनेन्दौ कृशे ॥ ११ ॥
- वेश्या क्या है ? वह किसी एक की नहीं, सारे विश्व की स्त्री है । इसी कारण वह किसी एक की प्रिया नहीं हो सकती । जैसे प्याऊ के पानी में और हलवाई के यहाँ के भोजन में कोई पवित्रता नहीं होती; क्योंकि वहाँ तो सब एक दूसरे का जूठा खाते-पीते हैं । इसी प्रकार वेश्या भी सब लोगों की जूठी की हुई होती है, उसमें पवित्रता कहाँ ? जैन कवि भूधरदास वेश्यागामी पुरुषों को धिक्कारते हुए कहते हैं
धन- कारन पापिनि प्रीति करै,
नहि तोरत नेह जरा तिनको । लब चाखत नीचन के मुख की,
शुचिता सब जाय छिये जिनको । मद-मांस बजारन खाय सदा,
अंध विसनी न करें घिन को । गनिका - संग जे सठ लीन भये,
धिक् है, धिक् है, धिक् है तिनको ॥
भावार्थ स्पष्ट है । कहना होगा कि वेश्या संग किसी भी तरह से उचित नहीं है । वेश्या तन से भी अपवित्र होती है, मन से भी । वह हर कामी पुरुष के सामने कहती हैं — "हृदयेश्वर ! आपके सिवाय मेरा कोई स्वामी नहीं है ।" हजारों खुशामदें भी करती है । परन्तु उसके हृदय में कपट होता है ।
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राजगृह निवासी धनदत्त सेठ का पुत्र कृतपुण्य बहुत सुन्दर, सुरूप और भद्र था । माता-पिता ने उसे चतुर बनाने हेतु वहाँ की प्रसिद्ध गणिका वसन्तमंजरी के यहाँ भेजा । गणिका ने पहले तो उसे खूब आदर-सत्कार दिया । कृतपुण्य को बहकासिखाकर वह उससे धन मंगवाती रही । वेश्यासक्त ने भी अपने पिता के करोड़ों रुपये लाकर वेश्या को दे दिये । उसने कुछ ही वर्षों में अपने धन, धर्म, स्वास्थ्य, बल, रूप और कुल को वेश्या की कामाग्नि में होम दिया। जब वह सब तरह से खाली हो गया और वेश्या ने देख लिया कि इसके माता-पिता भी न रहे और न ही इसके पास अब धन रहा है, तब उसने एक दिन कृतपुण्य को अपमानित करके अपने घर से froar दिया । वह उदास और निराश होकर घर आया तो उसकी चारों पत्नियों
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