Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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४ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ
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उसकी दादी को यह बात कही कि यह बच्चा सन्त या शासक-दो में से एक होके रहेगा । तब इस बात को कोई सत्य मानने के लिए तैयार नहीं था। इतना ही नहीं, इस कथन को मनोरंजन का विषय बनाकर विस्मृत-सा कर दिया गया। राज्य-सेवा में
अम्बालाल जब 'अपर' पढ़ चुका तो किसी समुचित कार्य में लग जाना चाहता था। दादी चाहती थीं कि यहीं कोई धन्धा शुरू किया जाए। किन्तु अम्बालाल कहीं बाहर किसी सुयोग्य नेतृत्व में काम करना चाहता था।
सद्भाग्य से लक्ष्मीचन्दजी देपुरा मिल गये। ये श्रेष्ठ राज्य कर्मचारी थे। बच्चे की योग्यता और इच्छा को परख कर अपने साथ ले गये और रामपुरा में दाणी के रूप में नियुक्त कर दिया। रामपुरा मेवाड़ का ब्यावर की तरफ का अन्तिम नाका है। वह महत्त्वपूर्ण चौकी थी। अच्छी मुस्तैदी से वहाँ का कार्य सँभाला।
लक्ष्मीचन्दजी देपुरा, जो इन्स्पेक्टर थे, बड़े खुश थे। राजवर्गीय लोगों में अम्बालालजी प्रशंसा पाने लगे तो. मोतीलालजी देपुरा इन्हें बागौर ले गये । वहाँ मुहरिर के पद पर काम किया।
हीरालालजी चिचाणी 'शिशुहितकारिणी सभा', मेवाड़ में गिरदावल के पद पर थे, बड़े ही ख्याति प्राप्त कार्यकर्ता थे। अम्बालाल जी को सुयोग्य समझकर उन्होंने अपने पास बुला लिया और अपने निर्देशन में कार्य दिया । इस कार्य के अन्तर्गत भीलवाड़ा, जहाजपुर, मॉडलगढ़, चित्तौड़ आदि परगनों के कई ठिकानों में बड़ी समझदारीपूर्वक काम किया। दुर्घटना से बचे
जीवन कभी-कभी मृत्यु के मुख में पहुंचकर आश्चर्यजनक ढंग से बच जाया करता है। ऐसी घटनाएँ अम्बालालजी के जीवन में भी बनीं । तैरना आता नहीं था। किन्तु बच्चों के साथ पीछोला चले गये । उनके साथ पानी में उतर गये । गहराई में जाते ही डूबने-उबरने लगे। जीवन और मृत्यु जुड़ने ही वाले थे कि कुछ व्यक्ति, जो स्नान कर रहे थे, ने देख लिया और उन्होंने बाहर निकाल कर एक तरह से इन्हें नया जीवन प्रदान किया।
एक बार थामला में अम्बालाल जी तीन मंजिल की ऊँचाई से गिर गये, बचना कठिन था, किन्तु सभाग्य की बात थी कि ये एक व्यक्ति के ऊपर जा गिरे। उसे भी चोट लगी, किन्तु ये बच गये । कुछ दिन व्यापार भी
पहले माताजी की और बाद में पिताजी की मृत्यु ने एक ऐसी स्थिति पैदा कर दी कि इनका राज्य सेवा में रहना असम्भव हो गया । फलस्वरूप इन्हें सब कुछ छोड़कर माहोली आ जाना पड़ा । थामला की जिम्मेदारियों का वहन करना भी एक आवश्यकता थी। एक छोटा भाई था-रंगलाल, उसे सक्षम बनाने का भी प्रश्न था । अम्बालाल जी मावली-थामला में रहकर अपने सभी तरह के उत्तरदायित्व को निभा रहे थे। फिर भी आर्थिक दृष्टि से कुछ न कुछ करते रहने को जी चाहता था । सुयोग भी मिल गया । भादसोड़ा वाले श्री खूबचन्द जी व्होरा ने इन्हें अपनी दुकान फतहनगर बुला लिया। ईमानदारी इन्हें जन्मजात मिली थी। व्यावहारिक प्रतिभा भी ठीक थी। थोड़े समय में वहाँ इन्होंने अपनी विश्वासपात्रता का अच्छा परिचय दिया। खूबचन्द जी अपने घरेलू एवं व्यावसायिक प्रायः सभी कार्यों में इन पर ही निर्भर करते थे । सद्व्यवहार और चातुर्य से प्रायः सभी प्रभावित थे। यद्यपि व्यावसायिक क्षेत्र में इनका अधिक टिकाव नहीं हुआ, किन्तु वह थोड़ा समय भी नैतिकतापूर्ण और चरित्रनिष्ठ रहा । गुरु-समागम
. जब कुछ नया होने को होता है तो अचानक अनपेक्षित संयोग मिल जाया करते हैं। हथियाना भादसोड़ा से चार मील पर गाँव है । वहाँ कोई शादी थी। जाना तो कानमलजी को था जो खूबचन्दजी के बड़े पुत्र थे, किन्तु उन्होंने सहज ही आग्रह कर लिया साथ में चलने का । अम्बालालजी चाहते हुए भी इन्कार नहीं कर सके । दोनों हथियाना पहुँच गये।
संयोग की बात थी। उसी दिन मेवाड़ प्रसिद्ध सन्त-रल पूज्य श्री मोतीलालजी महाराज साहब अपने शिष्य
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