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२] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण काव्य को अग्राह्य कहा था।' इस अर्थ में कवि की समग्र उक्तियों का सौन्दर्य अलङ्कार है। काव्य के वे सभी तत्त्व जो काव्य में शोभा का आधान करते हैं, अलङ्कार के व्यापक अर्थ में उसके अङ्ग हैं। गुण एवं अलङ्कार के सद्भाव से तथा दोष के अभाव से काव्य में सौन्दर्य आता है। अतः अपने विशिष्ट अर्थ में शब्दार्थ के अलङ्कार, गुण आदि उस काव्य-सौन्दर्य के पर्यायभूत अलङ्कार के साधक मात्र हैं।
अलङ्कार शब्द का दूसरा विशिष्ट अर्थ, जिस अर्थ में शब्द और अर्थ के अनुप्रास, उपमा आदि अलङ्कार कहलाते हैं, उस शब्द की करण व्युत्पत्ति से उपलब्ध है । करण व्युत्पत्ति से अलङ्कार शब्द का अर्थ होता है, वह तत्त्व जो काव्य को अलङ कृत अर्थात् सुन्दर बनाने का साधन हो- (अलङ क्रियतेऽनेन इति अलङ्कारः)। आज अलङ्कार शब्द का यही अर्थ अधिक प्रचलित है । करण व्युपत्ति से काव्य-सौन्दर्य के साधन का अर्थ स्पष्ट हो जाने पर भी काव्य में अलङ्कार के कार्य तथा स्थान के सम्बन्ध में आचार्यों में मतभेद बना रहा। इसका प्रधान कारण काव्य के सम्बन्ध में उनकी मूल दृष्टि का अन्तर था।
एक शंका, जिसका समाधान ढूढ़ना आवश्यक है, यह है कि यदि अलङ्कार शब्द का अर्थ करण व्युत्पत्ति से काव्य-सौन्दर्य का साधक मान लिया जाय तो गुण आदि काव्य के अन्य शोभाधायक तत्त्वों से कव्यालङ्कार का भेद किस आधार पर किया जायगा ? गुण, अलङ्कार आदि सभी काव्य-तत्त्वों को काव्यसौन्दर्य का साधन मानकर सब को एक कोटि में रख देना तो शास्त्रीय विश्लेषण की पद्धति से पलायन ही माना जायगा। भावक के लिए काव्यार्थ के भावन में काव्याङ्गों के अलग-अलग सौन्दर्य का महत्त्व नहीं। भावन तो सौन्दर्य की समग्रता का ही होता है; पर शास्त्रीय विश्लेषण के लिए काव्य के तत्तत् अङ्गों के कार्य की मीमांसा आवश्यक है। गुण, अलङ्कार आदि के भेदअभेद के प्रश्न पर भारतीय साहित्यशास्त्र में जो ऊहापोह हुए हैं उनका समीक्षात्मक अध्ययन हमने अपने ग्रन्थ 'काव्य गुणों का शास्त्रीय विवेचन के एक स्वतंत्र अध्याय में किया है। कुछ आचार्यों ने गुण एवं अलङ्कार को काव्य-सौन्दर्य का समान भाव से साधक मानकर दोनों के विषय-विभाग को
१. काव्यं ग्राह्यमलंकारात् । -वामन, काव्या० सू० वृ० १, १,१ २. करणव्युत्पत्या पुनरलङ्कारशब्दोऽयमुपमादिषु वर्तते ।।
-वही, वृत्ति पृ०५
३. द्रष्टव्य-प्रस्तुत प्रबन्ध के लेखक का ग्रन्थ 'काव्य गुणों का शास्त्रीय
विवेचन' अध्याय २