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प्रथम अध्याय
अलङ्कार का स्वरूप और काव्य में उसका स्थान
वाणी के अलङ्कार मानव की सहज प्रवृत्ति और रुचि से आविर्भूत हैं। लोक-जीवन में अनेक प्रकार के अलङ्करणों से, साज-सज्जा से दूसरों की धारणा को प्रभावित करने की प्रवृत्ति जन-सामान्य में पायी जाती है। काव्य-जगत में भी काव्य की उक्तियों को अधिकाधिक चमत्कारपूर्ण, प्रभावोत्पादक बनाने के लिए उन्हें अलङ कृत किया जाता है। काव्य की उक्तियाँ लोक-व्यवहार की उक्तियों से तो भिन्न होंगी ही। काव्योक्तियों में लोकोत्तर चमत्कार अपेक्षित रहता है। लोकातिगामी चमत्कार की सृष्टि में ही कवि-प्रतिभा की सार्थकता है। लोक-व्यवहार में प्रयुक्त अनलङ कृत शब्द और अर्थ अलङ कृत होकर अर्थात् चमत्कारपूर्ण भङ्गी-विशेष से कथित होने पर काव्य पदवी-प्राप्त कर लेते हैं।' कवि-प्रतिभा से समुद्भूत उक्तियों के अलोकसिद्ध सौन्दर्य को कुछ आचार्यों ने व्यापक अर्थ में अलङ्कार कहा है। उनके अनुसार अलङ्कार सौन्दर्य का पर्याय है।
ध्यातव्य है कि अलङ्कार शब्द का प्रयोग दो अर्थों में हुआ है। दोनों ही अर्थ अलङ्कार शब्द की अलग-अलग व्युत्पत्तियों से उपलब्ध हैं। भाव व्युत्पत्ति से अलङ्कार शब्द का अर्थ (अलङ कृति अर्थात् अलम् ++क्तिन् = अलङ कृति तथा अलम् + +घञ = अलङ्कार) भूषण या शोभा का भाव है। इस अर्थ में अलङ्कार सौन्दर्य से अभिन्न है । इसी अर्थ में वामन ने अलङ्कार को सौन्दर्य का पर्याय कहकर अलङ्कारयुक्त काव्य को ग्राह्य तथा अलङ्कारहीन या असुन्दर १. यानेव शब्दान्वयमालपामो यानेव चार्थान्वयमुल्लिखामः । तैरेव विन्यासविशेषभव्यैः संमोहयन्ते कवयो जगन्ति ॥
-नीलकण्ठ-दीक्षित, शिवलीलार्णव, १, १३ २. सौन्दर्यमलङ्कारः । -वामन, काव्यालंकारसूत्रवृत्ति, १, १, २ ३. अलङ कृतिरलंकारः । वही, वृत्ति पृ० ५