Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 740
________________ सुधा टीका स्था० उ०२सू० ५९ एक-कति-सर्वशब्दानां प्ररूपणम् ७२५ दित्वात् , तद्यथा-" उत्पन्ने इ वे "-त्यादि, इह प्रवचने दृष्टिवादे सकलनयवाद. मूलभूतानि मातृकापदानि भवन्ति, यथा-" उप्पन्नेइ वा विगमेइ वा धुवेइवेत्ति, अमूनि च मातृकापदानीव 'अ. आ' इत्येवमादीनि सकलशब्दशास्त्रार्थव्यापार व्यापकत्वान्मातृका पदानी "-ति (२। तथा-पर्यायैककः-पर्यायो धर्मः, स एवैकका पर्यायैककः-एकः पर्यायः, स चाऽऽदिष्टानादिष्टभेदेन द्विविधः, तत्राऽऽदिष्टः कृष्णादिः, अनादिष्टो वर्णादिः। 'पर्यायो विशेषो धर्मः' इत्येते समानार्थाः ।। मातृका पद रूप जो एकक है वह मातृका एकक है। अथवा-" एक मातृकापदं" इति मातृकैककम्-यहां शाकपार्थिवादि जैसा मध्यमपद लोपी समास है । जैसे-शाकप्रियः पार्थिवः शाकपार्थिवः में मध्यम पद प्रियका लोप करके शाकपार्थिवः बनता है, उसी प्रकारसे यहां भी मध्यम पद “पद” का लोप करके " मातृकैककम्" बना है। प्रवचनमें द्रष्टिवादमें जैसे-" उप्पन्नेइवा, विगमेइवा, धुवेइवा, ये मातृकापद है, उसी प्रकार अ-आ आदि वर्ण 'मातृकापद' है । क्योंकि ये मातृकापदोंकी तरह सकल शास्त्रोंके अर्थका व्यापारमें व्यापक हैं । " पर्यायैकक "-पर्याय नाम धर्मका है । पर्यायरूप जो एकक है, वह पर्यायैककहै, यह पर्यायैकक एक पर्यायरूप है । आदिष्ट अनादिष्टके भेदसे यह दो प्रकारका है। कृष्णादिपर्याय आदिष्ट, और वर्णादि पर्याय अनादिष्ट है। पर्याय विशेष और धर्म ये समानार्थक हैं ३ । રૂપ જે એકક છે, તે માતૃકા એકક છે. वर्णाक्ष२ ३५ ४४२ भातृ से 3 छ. अथवा " एक मातृकापदं इति मातृकैककम् " मेवा ५५ भातृ से शहना बिग्रड थाय छे. सही पार्थिवावर मध्यभपह वापी समास छ. सभडे " शाकप्रियः पार्थिवः शाकपार्थिवः ” शापार्थिवमा प्रिय ५४ना सो५ श ा समास આપ્યો છે. શાક જેને પ્રિય છે એ પાર્થિવ, તે શાકપાર્થિવ. એ જ प्रमाणे सही पण मध्यम ५६ "५४" ना५ ४रीने " मातृकैककम्" । मन्या छ. प्रपयनमा-टिमवीरीत " उप्पन्नेह वा विगमेइ वा, धुवेइवा" से भातृ ५६ ३५ छे, मे ८ प्रमाणे '२', 'A' मा 'भात પદ” છે કારણ કે તેઓ માતૃકાપની જેમ સકલ શાસ્ત્રોના અર્થના વ્યાપારમાં व्या५ छे. ___“ पर्यायैककः " पर्याय मेट भ. पर्याय३५२ मे छ तर पर्या. વૈકક કહે છે. તે પર્યાપકક એક પર્યાયરૂપ છે. આદિષ્ટ અને અનાદિષ્ટના ભેદથી તે બે પ્રકારનું છે. કૃષ્ણાદિ પર્યાય આદિષ્ટ છે અને વર્ણાદિ પર્યાય અનાદિષ્ટ છે. પર્યાય, વિશેષ અને ધર્મ એ સમાનાર્થક છે. શ્રી સ્થાનાંગ સૂત્ર : ૦૨

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