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भारतीय दर्शन के सामान्य सिद्धान्त १३ वह नित्य और अविच्छिन्न हो। सभी आस्तिक-दर्शन आत्मा की नित्यता को स्वीकार करते हैं।
चावकि-दर्शन शरीर, प्राण अथवा मन से भिन्न आत्मा जैसी नित्य वस्तु को स्वीकार नहीं करता । अतः उसके मन में जन्मान्तर अथवा पुनर्जन्म जैसी वस्तु मान्य नहीं है। बौद्ध दार्शनिक आत्मा को क्षणिक विज्ञानों की एक सन्तति मात्र मानते हैं। उनके अनुसार आत्मा क्षण-क्षण में बदलता है । जो आत्मा पूर्व क्षण में था, वह उत्तर क्षण में नहीं रहता। इस प्रकार नदी के प्रवाह के समान वे चित्त-सन्तति के प्रवाह को स्वीकार करते हैं, और कहते हैं, कि आत्मा की सन्तति नित्य प्रवहमान रहती है। इस प्रकार क्षणिकवाद को स्वीकार करने पर भी वे जन्मान्तर और पुनर्जन्म को भी स्वीकार करते हैं। उनकी मान्यता के अनुसार एक विज्ञानसन्तान का अन्तिम विज्ञान सभी पूर्व विज्ञानों की वासनाओं को आत्मसात करता है, और एक नया शरीर धारण कर लेता है । बौद्ध मत के अनुसार वासना को संस्कार भी कहा गया है। इस प्रकार बौद्ध दार्शनिक आत्मा को नित्यता तो नहीं मानते, लेकिन विज्ञान-सन्तान को अविच्छिन्नता को अवश्य ही स्वीकार करते हैं । जैन दार्शनिक आत्मा को केवल नित्य नहीं, परिणामी-नित्य मानते हैं। आत्मा द्रव्य-दृष्टि से नित्य है, और पर्यायदृष्टि से अनित्य । क्योंकि पर्याय प्रतिक्षण बदलता रहता है। इस बदलने पर भी द्रव्य का द्रव्यत्व कभी नष्ट नहीं होता। जैन दार्शनिक पुनर्जन्म को स्वीकार करते हैं। क्योंकि प्रत्येक आत्मा अपने कर्मों के अनुसार अनेक गति एवं योनियों को प्राप्त होती रहती है। जैसे-कोई एक आत्मा जो आज' मनुष्य शरीर में है, भविष्य में वह अपने शुभाशुभ कर्मों के अनुसार देव और नारक भी बन सकता है । एक जन्म के बाद दूसरे जन्म को धारण करना इसी को जन्मान्तर अथवा भवान्तर कहा जाता है। इस प्रकार समस्त भारतीय दार्शनिक परम्पराएँ पुनर्जन्म को स्वीकार करती हैं । भारतीय-वर्शनों में मोक्ष एवं निर्वाण :
आस्तिक दार्शनिकों के सामने यह प्रश्न उपस्थित हआ, कि क्या कभी आत्मा की इस प्रकार की स्थिति भी होगी, कि उसका पुनर्जन्म अथवा जन्मान्तर मिट जाए? इस प्रश्न के उत्तर में उनका कहना है, कि मोक्ष, मुक्ति अथवा निर्वाण ही वह स्थिति है, जहां पहुँचकर आत्मा का जन्मान्तर अथवा पुनर्जन्म मिट जाता है। यही कारण है, कि आत्मा की अमरता में
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