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२६ अध्यात्म प्रवचन : भाग तृतीय जैन दर्शन को तत्व दृष्टि :
जैन दार्शनिकों ने मूल भूत तत्त्व दो माने हैं-जीव तत्त्व और अजीव तत्त्व । कहीं पर जीव द्रव्य और अजीव द्रव्य भी कहा गया है। स्थानांग सूत्र में दो राशियों का उल्लेख है-जीव-राशि और अजीव-राशि । समस्त जगत को दो भागों में विभक्त कर दिया गया है । इन दोनों से बाहर जगत् में कुछ शेष नहीं बचता। इन दोनों का ही विस्तार पञ्च-अस्तिकाय, षड् द्रव्य, सप्त तत्त्व और नव पदार्थ हो जाते हैं । तत्त्वों के सम्बन्ध में भारत के अन्य दर्शनों में भी कहीं पर संक्षेप और कहीं पर विस्तार से देखा जा सकता है।
____सांख्य दर्शन में पच्चीस तत्त्व माने गए हैं, लेकिन मूल में दो हैंप्रकृति और पुरुष । जगत् इन दो का ही विस्तार है । उपनिषद् एवं वेदान्त में, एकमात्र ब्रह्म को तत्त्व माना गया है । ब्रह्म ही सत्य है, अन्य सब भ्रम है, मिथ्या है । सब कुछ चेतन है, जड़ है ही नहीं। इसके विपरीत भूतवादी चार्वाक बृहस्पति एकमात्र जड़ को हो जगत् का आधारभूत तत्त्व मानता है । वह चेतन को नहीं मानता । उसके मत में चार भूत अथवा पाँच भूत तत्त्व हैं, जो जगत् के आधार माने जाते हैं। ये भूत, जो स्थूल है, इन्द्रिय गोचर है, उन्हें ही वह मानता है । दोनों को मिलाने से जैन दृष्टि हो जाती है-जीव और अजीव । यही तो जैन तत्त्व-दृष्टि है।
___ सांख्य और योग भी दो तत्त्व स्वीकार करता है-पुरुष और प्रकृति । पर उसने पुरुष को कूटस्थ नित्य माना, और प्रकृति में नित्यनिरन्तर परिवर्तन । उस दर्शन में बन्ध एवं मोक्ष की व्यवस्था नहीं बैठ सकती । अतः जैन दर्शन में जीव और अजीव को परिणामी नित्य मानकर बन्ध और मोक्ष की व्यवस्था को नियत कर दिया।
बौद्ध दर्शन द्वतवादी है-वह जड़ और चेतन की सत्ता को तो स्वीकार करता है परन्तु क्षण-ध्वंसवादी है । किसी की भी सत्ता एक क्षण से अधिक नहीं रहती है। अतः बन्ध और मोक्ष की व्यवस्था का वहाँ पर अभाव है। क्योंकि वह क्षणिकवादी दर्शन है। जो दोष नित्यवाद में हैं, वे ही दोष क्षण-ध्वंसवाद में भी हैं, अतः बन्ध और मोक्ष की व्यवस्था नहीं बन पाती । वह तभी बन पाती है, जबकि आत्मा को परिणामी नित्य स्वीकार किया जाए । सांख्य दर्शन में यह दोष है, कि वह प्रकृति को तो परिणामी नित्य मानता है, लेकिन पुरुष को कूटस्थ नित्य ।
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