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६६ अध्यात्म प्रवचन : भाग तृतीय
विभाग वचनम् ।" इसका अर्थ भी विभज्यवाद ही होता है। इस प्रकार हम देखते हैं, कि सांख्य दर्शन, न्याय-दर्शन, वेदान्त दर्शन और वेदान्त दर्शन की विभिन्न उपशाखाओं पर भी अनेकान्तवाद का स्पष्ट प्रभाव पड़ा था । वेदान्त - परम्परा में जो भेदाभेदवाद और द्वैताद्वै तवाद, शुद्धाद्वै तवाद और विशिष्टाद्वैतवाद - इस प्रकार के वाद अनेकान्तमयी दृष्टि के अभाव में नहीं हो सकते । प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप में यह स्वाभाविक था, किं अनेकान्तवाद का प्रभाव मीमांसा दर्शन और वेदान्त दर्शन तथा सांख्य के परिणाम - वाद पर भी पड़ना आवश्यक था । हम देखते हैं, कि विभिन्न दार्शनिकों ने अनेकान्तवाद का विरोध करते हुए भी उसे स्वीकार भी किया है, और अपने क्षेत्र में उसका प्रयोग एवं उपयोग भी किया है । इस पर से अनेकान्तवाद को सर्वव्यापकता एवं लोकप्रियता का सहज ही परिज्ञान हो जाता है ।" अनेकान्तवाद पर इतना विचार करने पर निष्कर्ष यह निकलता है, कि अनेकान्तवाद का आधार सत्य रहा है ।
नयवाद :
अनेकान्तवाद को समझने के लिए जैन दर्शन के नयवाद को समझना भी परम आवश्यक है । क्योंकि नयवाद ही अनेकान्तवाद की पृष्ठभूमि रहा है | नयवाद क्या वस्तु है और उसका क्या स्वरूप है ? इसके सम्बन्ध में जैन - परम्परा के साहित्य में पर्याप्त गम्भीरता से विचार किया गया है । तत्त्व का ज्ञान दो प्रकार से होता है- प्रमाण और नय । इस प्रकार का कथन आचार्य उमास्वाति ने अपने तत्त्वार्थ सूत्र में किया है। किसी भी वस्तु का परिज्ञान करना हो तब उसके लिए प्रमाण और नय की आश्यकता रहती है। बिना प्रमाण और नय के वस्तु का यथार्थ परिज्ञान नहीं हो सकता । प्रमाण और नय में इतना अन्तर है, कि प्रमाण वस्तु के पूर्ण रूप को ग्रहण करना है, और नय प्रमाण के द्वारा गृहीत वस्तु के एक अंश को जानता है । इस दृष्टि से नय की परिभाषा इस प्रकार होगी । ज्ञाता का वह अभिप्राय विशेष नय है, जो प्रमाण के द्वारा ज्ञात वस्तु के एक देश का स्पर्श करता है । वस्तु अनन्त धर्मात्मक है, प्रमाण- ज्ञान उसे समग्र भाव से ग्रहण करना है, उसमें अंश-विभाजन करने की ओर उसका लक्ष्य नहीं होता ! जैसे यह घट है । इस ज्ञान में प्रमाण घट को अखण्ड भाव से उसके
१ जैन धर्म का प्राण, पृ. २०६, पं. सुखलालजी कृत ।
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