Book Title: Adhyatma Pravachana Part 3
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 176
________________ लेश्याओं के रूप में चित्रण १६७ है और कभी बुरे रूप में भी। इसके लिए जैन परम्परा में लेश्या शब्द का प्रयोग किया गया है । यह प्रयोग पाप-पुण्य रूप अच्छे-बुरे भावों तक चलता है । उपचार दृष्टि से कुछ और आगे भी, किन्तु वह उपचार है । वीतराग निर्विकार चेतन मूलतः लेश्या मुक्त होता है। यह इसलिए कि लेश्या का मूल अर्थ श्लेष है अर्थात् लिप्तता - "लिश्यते प्राणी कर्मणा यया सा लेश्या ।" -स्थानांग टीका अच्छे विचार, शुभ कर्म अर्थात् पुण्य कर्म का आत्मा के साथ में श्लेष करते हैं और बुरे विचार, अशुभ कर्म अर्थात् पाप कर्म का आत्मा के साथ में श्लेष करते हैं । और जब भाव अच्छे-बुरे अर्थात् पाप-पुण्य दोनों ही से परे हो जाते हैं, तब वह लेश्या-मुक्त अर्थात् निर्लिप्त हो जाता है । इसी दृष्टि को ध्यान में रखते हुए आचार्य सिद्धसेन कहते हैं- "न पुण्यं न पापं न यस्याऽस्ति बन्धः । स एकः परात्मा गतिर्मे जिनेन्द्रः ॥" भारत के धार्मिक एवं दार्शनिक चिन्तन क्षेत्र में प्रायः सर्वत्र भाव का वर्णन किया गया है । किन्तु जैन परम्परा में लेश्या के रूप में भावों का जी विस्तार के साथ विशद रूप से वर्णन समुपलब्ध है, वह अद्भुत है । प्राचीन आगम- साहित्य एवं उत्तरकालीन प्राकृत संस्कृत साहित्य लेश्याओं के वर्णनों से आप्लावित है । हम यहाँ अधिक विस्तार में तो नहीं जाएँगे, किन्तु संक्षेप में लेश्याओं के स्वरूप आदि का वर्णन उपस्थित करने का प्रयत्न करेंगे । यह संक्षिप्त वर्णन भी जिज्ञासु पाठकों को, अध्येताओं एवं विचारकों को जीवननिर्माण को एक दृष्टि दे सकेगा । जीवन-पथ की इधर-उधर बिखरी हुई पद्धतियों को एक शुद्ध लक्ष्योन्मुख पद्धति देगा । और, यह पद्धति अर्थात् दिशा-निर्देशन जीवन को अशुद्ध दशा में से शुद्ध दशा में परिवर्तित करेगा । क्योंकि दिशा के आधार पर ही दशा का निर्माण होता "यादृशी दिशा, तादृशी दशा " व्यक्ति के अन्तर्-जीवन के भाव सागर में उठने वाली तरंगों की कोई निश्चित सीमा नहीं है । भावों के निम्नोन्नत उतार-चढ़ाव एवं शुभाशुभत्व की परिगणना किसी महान् सर्वोत्कृष्ट ज्ञानी के ही असीम ज्ञान में अंकित हो सकती है । साधारणतः भला उन्हें कौन गिन सकता है । एक दिन के उतार-चढ़ावों की संख्या भी आंकड़ों में नहीं नापी जा सकती है । तथापि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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