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अध्यात्म प्रवचन : भाग तृतीय
मन, वचन और कर्म से भी विनम्र, विनयशील एवं शालीन होता है । व्यर्थ की चपलता, हँसी-मजाक एवं शठता से अलग रहता है । धर्म-परम्परा तथा सामाजिक परम्परा आदि की एवं गुरुजन, वृद्ध एवं अपने से महत्तर व्यक्तियों का यथोचित आदर-सत्कार करता है । स्वाध्याय, ध्यान, शुद्ध तप, सेवा आदि धर्म कार्यों में आन्तरिक सहज भाव से अभिरुचि रखता है | अपनी कृत जन-मंगल रूप निर्मल प्रतिज्ञाओं को दृढ़ता के साथ निर्वहन करने हेतु यत्नशील रहता है ।
यह तेजोलेश्या इसलिए तेजो लेश्या है, कि इसमें सदाचार का तेज प्रज्वलित हो जाता है । इसी अर्थ में शास्त्रकारों ने इसके रूप-रंग का वर्णन करते हुए इसकी उदयमान सूर्य बिम्ब के स्वर्णिम रक्तप्रभा आदि के रूपों से तुलना की है ।
५. पद्म लेश्या :
उक्त लेश्या में क्रोध, मान, माया, लोभ रूप कषायों की तीव्रता और अधिक मन्द हो जाती है । उसका चित्त विपरीत स्थितियों में भी अधिकतर शान्त बना रहता । अपने को अशुभ प्रवृत्तियों से मुक्त रखते हुए योग एवं उपधान आदि की विशिष्ट धर्म साधना में यथास्थिति शुद्धभाव से संलग्न रहता है । वह विचार पूर्वक मितभाषी और यथाशक्ति जीतेन्द्रिय बन जाता है ।
पद्म का अर्थ कमल होता है । अतः पद्म लेश्या के साधक के भाव कमल के समान स्वच्छ स्वरूप एवं सुरभित होते हैं ।
६. शुक्ल लेश्या :
उक्त लेश्या में भावों की विशुद्धता शंख, कुन्दपुष्प, दुग्ध-धारा आदि के समान शुक्ल एवं शुक्लतर होती है । यह शुक्लता अर्थात् श्वेतता निर्विकार भावना को द्योतित करती है । शुक्ल लेश्या में आर्त्त - रौद्र-ध्यान से पराङमुख होकर साधक धर्म ध्यान एवं अंशतः शुक्ल-ध्यान में सम्यक् - भाव से संलीन रहता है ।
पूर्व कथित कृष्ण आदि तीन अधमं लेश्याओं के दुर्भावों का तथा तदुत्तर तेजोलेश्या आदि तीन धर्म लेश्याओं के शुद्ध भावों का जो वर्णन किया गया है, वह संक्षेप में स्वरूप जिज्ञासा की पूर्ति के हेतु एक निर्देशन
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