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अध्यात्म प्रवचन : भाग तृतीय
२. दूसरे मित्र ने कहा- वृक्ष का मूलोच्छेदन करके उसे हमेशा के लिए धराशायी बनाने में क्या लाभ है ? भविष्य में फिर कभी किसी को फल कैसे मिलेंगे ? अतः बड़ी-बड़ी शाखाएँ ही काट लेनी चाहिए । उन्हीं के फलों से हमारा काम बन जाएगा ।
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३. तीसरे मित्र ने कहा- बड़ी शाखाओं के काटने से भी क्या लाभ है ? फल तो छोटी-छोटी उपशाखाओं / टहनियों) में लगे हुए हैं । अतः उन्हें ही काट लेना ठीक है ।
४. चतुर्थ मित्र कुछ अधिक विवेकशील था । उसने कहा- उपशाखाओं को काटना भी व्यर्थ है । हमको तो फल खाने हैं, शाखाएँ नहीं । अतः फलों के गुच्छक ही तोड़ लेने चाहिए ।
५. पाँचवें मित्र ने चिन्तन को आगे बढ़ाते हुए कहा - गुच्छों को तोड़ने से भी कोई लाभ नहीं है । उनमें बहुत से अभी कच्चे फल हैं । वे भविष्य में पकेंगे, फलतः किसी और की भूख को मिटाएँगे । अतः जो फल पक गए हैं, केवल वे ही तोड़ लेने चाहिए ।
६. छट्टा मित्र सर्वाधिक विवेक-निष्ठ था । उसने जो कहा, वह बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । 'उसके कथन में आलस्य की गन्ध नहीं है । उसमें यथोचित विवेक का सौरभ है। उसने विनम्र शालीनता के साथ कहा-प्रिय मित्रो ! क्यों काटने - तोड़ने आदि की झंझट में पड़ रहे हो । देखो, हवा के झोंके के साथ पूर्ण रूप से पके हुए जामुन पहले से ही भूमि पर गिरे हुए हैं और अब भी गिर रहे हैं । अतः इन्हीं के द्वारा हमारी भूख की समस्या का अनायास ही हल हो सकता है ।
उक्त उदाहरण पर से स्पष्ट हो जाता है कि मनुष्य भावों के पतन एवं उत्थान में अपने विचारों को क्रियान्वित करने में किस प्रकार की शुभा - शुभ भावनाएँ रखता है ।
दूसरा उदाहरण ग्राम- दाहकों तथा ग्राम-नाशकों का है। छह मित्र व्यक्ति एक ग्राम के भयंकर शत्रु थे । वे ग्राम को लूटना भी चाहते थे और साथ ही उसे मुलतः नष्ट कर देने का विचार भी रखते थे । एक बार अर्धरात्रि के समय ग्राम के बाहर किसी उजड़े हुए उद्यान में इकट्ठे हुए और ग्राम-नाश की योजना बनाने लगे ।
एक ने बड़ी क्रूरता के साथ कहा- ग्राम के चारों ओर जो कंटीली
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