Book Title: Adhyatma Pravachana Part 3
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 182
________________ लेश्याओं के रूप में चित्रण १७३ झाड़ियों को काटर सुरक्षा की बाड़ लगा रखी है, उसमें चारों ओर से आग लगा दें, जो भी स्त्री-पुरुष, बाल-वृद्ध-युवा आदि बाहर निकलने का प्रयत्न करें, उन सबको तलवार एवं भालों के द्वारा मार दिया जाए। यहां तक कि पशुओं को भी सुरक्षित रूप से बाहर नहीं निकलने दिया जाए। १. उक्त योजना पर विचार हो ही रहा था कि एक मित्र ने बड़े हर्ष से कहा-हाँ यही ठीक है । हमें ऐसा ही करना चाहिए । २. दूसरे मित्र ने कहा-विचारे मूक एवं निरपराध पशुओं को मारने से क्या लाभ है ? उन्होंने हमारा क्या बिगाड़ा है ? हमें तो केवल मनुष्यों से ही बदला लेना है। ३. तीसरे ने कहा-स्त्रियों की हत्या करना महापाप है । अतः मेरे विचार में पुरुषों को मारना ही ठीक है। ४. चतुर्थ व्यक्ति ने कहा-बाल-वृद्ध आदि निश्शस्त्र व्यक्तियों को मारना भी पाप है। अतः सशस्त्र एवं सशक्त व्यक्तियों को ही मारना उचित है। ५. पांचवें व्यक्ति ने कहा--शस्त्र-धारण करने से क्या होता है ? शस्त्रधारी व्यक्ति भी यदि भयभीत होकर भाग रहा हो, तो उसे मारना भी महापाप है। अतः शस्त्र लेकर जो हमसे संघर्ष करने को आए, उसे ही मारना उचित है। ६. छट्ठा व्यक्ति जरा अधिक विवेकशील था, उसने कहा-न हमें गांव को जलाने की जरूरत है, न किसी को मारने की। गांव के सब लोग सोए पड़े हैं, अतः चुपचाप जा कर उनके धन का अपहरण कर लें। धन भी मनुष्य की एक प्राण शक्ति है। धन का नाश तो प्राण नाश से भी अधिक भयंकर है। अतः समग्र रूप से धन का अपहरण कर लें और अपनी सुखसुविधा के लिए यथोचित सामग्री जुटा लें। इस प्रकार चोर्य-कर्म करके भयंकर हत्याकाण्ड के पाप से तो हम बच जाएंगे। उक्त उदाहरण का रूप भी पूर्वोक्त उदाहरण के समान ही है। इस उदाहरण में भी किस प्रकार भावों की क्रूरता कम होती जाती है और कोमलता बढ़ती जाती है, यह एक गम्भीरता के साथ विचारने जैसा रूपक है। उक्त उदाहरणों पर से स्पष्ट हो जाता है कि मनुष्य के चिन्तन में से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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