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१८२ अध्यात्म प्रवचन : भाग तृतीय संस्कार कहता है । सांख्य प्रकृति कहते हैं । वेदान्त माया कहता है । बौद्ध वासना कहता है । अन्य सम्प्रदाय अविद्या तथा अज्ञान कह देते हैं। परन्तु जैन दर्शन में पूरा वर्णन किया है। कर्म, उसका कर्ता, कर्म का फल और जीवन पर उसका प्रभाव-इन सबकी गम्भीर विचारणा जैन दर्शन में उपलब्ध है।
५. आगम प्रमाण विचार
आप्त-वाणी से प्रकट होने वाले अर्थ-ज्ञान को आगम कहा गया है। जैसे कि "सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्ष-मार्गः।" अर्थात् प्रशस्त दर्शन, प्रशस्त ज्ञान और प्रशस्त चारित्र-इन तीनों का सहभाव अर्थात् एकता, मोक्ष का मार्ग अर्थात् उपाय है । "मार्गः" इस एक वचन से सिद्ध होता है, कि तीनों में एक-एक मोक्ष के उपाय नहीं हैं, बल्कि तीनों मिलकर ही मोक्ष के उपाय भूत हैं ।
___ आप्त कौन हो सकता है ? आप्त का लक्षण क्या है ? आप्त का लक्षण इस प्रकार है-"आप्तः प्रत्यक्ष-प्रमित-सकलार्थत्वे सति परम हितोपदेशकः ।" अर्थात् जो प्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा सम्पूर्ण पदार्थों को यथार्थ रूप में जानकर, उत्कृष्ट हित का उपदेश देने वाला हो, उसको आप्त कहते हैं । यदि परम हितोपदेशक को ही आप्त कहा जाए, तो श्रुत-केवली में अतिव्याप्ति होती है। क्योंकि श्रुत-केवली ने आगम के द्वारा समस्त जीव एवं अजीव आदि पदार्थों को यथार्थ रूप में जाना है। अतः कहा गया, कि प्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा । यदि प्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा सकल पदार्थों का ज्ञाता, आप्त होता है, तो सिद्धों में अतिव्याप्ति होगी। क्योंकि सिद्ध प्रत्यक्ष ज्ञान से सकल पदार्थों के ज्ञाता एवं द्रष्टा हैं। अतः कहा गया, कि परम हितोपदेशक । सिद्ध तो उपदेष्टा नहीं होते हैं । अर्हन ही उपदेष्टा होते हैं । अतः प्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा सकल पदार्थों के ज्ञाता एवं द्रष्टा तथा परम हित उपदेशक ही आप्त होते है । यह आप्त का लक्षण दोष-शून्य है।
इस प्रकार के आप्त के वाक्य से उत्पन्न होने वाले अर्थ ज्ञान को आगम कहते हैं । यहाँ पर आगम लक्ष्य है, और आप्त के वाक्य से होने वाला अर्थ ज्ञान इतना लक्षण है । यदि केवल अर्थ ज्ञान को हो आगम का Aक्षण माना जाए, तो प्रत्यक्ष आदि में, अतिव्याप्ति आती है, क्योंकि वह
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